जब एक पत्र बना हैदराबाद मुक्ति संग्राम की चिंगारी

हैदराबाद की तक़दीर लिखने वाला पत्र: स्वामी रामानंद तीर्थ और सरदार पटेल का ऐतिहासिक संवाद

1946 का भारत स्वतंत्रता की दहलीज पर खड़ा था। एक ओर दिल्ली में भारत की आज़ादी की रूपरेखा बन रही थी, तो दूसरी ओर हैदराबाद जैसे विशाल रियासतों में आज़ादी की लहर के खिलाफ शाही जिद दिखाई दे रही थी। मीर उस्मान अली खान, हैदराबाद के निज़ाम, दुनिया के सबसे अमीर शासकों में से एक थे। लेकिन उनके साम्राज्य में लोकतंत्र का कोई स्थान नहीं था।

इसी पृष्ठभूमि में 29 जून 1946 को एक साधारण संन्यासी, स्वामी रामानंद तीर्थ, ने एक असाधारण पत्र भारत के लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल को लिखा। यह पत्र हैदराबाद के हिंदू बहुल समाज की पीड़ा को सामने लाने वाला दस्तावेज़ था। पत्र में स्वामी जी ने बताया कि किस प्रकार निज़ाम संविधान सभा में 11% मुस्लिम आबादी को 50% प्रतिनिधित्व देने की कोशिश कर रहे थे, जो लोकतांत्रिक सिद्धांतों के विरुद्ध था।

यह सिर्फ एक विरोध नहीं था, यह चेतावनी थी — एक सच्चे लोकतांत्रिक भारत के निर्माण के लिए। स्वामी जी ने सरदार पटेल को विश्वास के साथ लिखा, "मुझे यकीन है कि जब भी आवश्यकता होगी, आप इस पहलू पर जोर देंगे।"

चार दिन बाद, 3 जुलाई 1946 को सरदार पटेल ने जवाब दिया — संयमित, व्यावहारिक और रणनीतिक। उन्होंने लिखा, "मैं नहीं जानता कि आपकी जानकारी का स्रोत क्या है। लेकिन मैं इसके बारे में और अधिक विवरण जानना चाहूंगा।" यह लौह पुरुष की सावधानी और दूरदर्शिता का प्रमाण था। वे अफवाहों पर नहीं, साक्ष्य पर काम करते थे।

पटेल ने पत्र के अंत में लिखा, "यह सुनकर अच्छा लगेगा कि भारत में बदली परिस्थितियों को आपके राज्य ने गंभीरता से लिया है।" यह एक सधी हुई चेतावनी थी — कि हैदराबाद अब अलग नहीं रह सकता।

अंततः वही हुआ जिसकी भविष्यवाणी इस पत्राचार में थी। निज़ाम की हठ और रज़ाकारों की हिंसा ने भारतीय सेना को हस्तक्षेप के लिए मजबूर कर दिया। 17 सितंबर 1948 को ऑपरेशन पोलो के तहत हैदराबाद भारत में सम्मिलित हुआ।