राजर्षि शाहूजी महाराज: समतामूलक समाज के निर्माता और सामाजिक न्याय के पुरोधा

कोल्हापुर रियासत के राजा और छत्रपति शिवाजी महाराज के वंशज छत्रपति शाहूजी महाराज का उदय उस समय हुआ जब समाज सुधारक ज्योतिबा फुले का निधन हो चुका था। उन्होंने 1894 में कोल्हापुर राज्य की बागडोर संभाली, जबकि ज्योतिबा फुले का परिनिर्वाण 1890 में हुआ था।
शाहूजी महाराज ने फुले के अधूरे मानवतावादी आंदोलन को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी निभाई। जब तक बाबासाहेब आंबेडकर भारतीय राजनीति में नहीं आए, तब तक शाहूजी महाराज ही सामाजिक न्याय और समानता की अलख जगाते रहे। उन्होंने आंबेडकर समेत कई समाज सुधारकों को नैतिक और आर्थिक सहयोग दिया।
जातिवाद के विरुद्ध संघर्ष
बाल गंगाधर तिलक जैसे नेता जहाँ रूढ़िवादी विचारों के पोषक थे, वहीं शाहूजी महाराज वंचित समाज के लिए समर्पित रहे। उन्होंने तिलक के उस वक्तव्य का प्रतिकार किया जिसमें वंचित जातियों की राजनीतिक भागीदारी का उपहास उड़ाया गया था।
प्रथम विश्वयुद्ध और राजनीतिक चेतना
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जब 'स्वनिर्णय का सिद्धांत' उभरा, तब शाहूजी महाराज ने आंबेडकर को इस सिद्धांत का लाभ उठाकर अछूतों के अधिकारों की मांग के लिए प्रेरित किया। उन्होंने लॉर्ड मोंटेग्यू से भेंट करने की सलाह दी और इस प्रयास में मार्गदर्शन भी किया।
नेतृत्व निर्माण में योगदान
जब देश में गांधी को नए नेता के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा था, शाहूजी महाराज ने लोकतांत्रिक मूल्यों के समर्थक, दूरदर्शी और गैर-सवर्ण नेतृत्व को बढ़ावा देने की वकालत की। 1920 में मानगांव की सभा में उन्होंने डॉ. आंबेडकर को बहुजन समाज का नेता घोषित किया।
डॉ. आंबेडकर को आर्थिक सहयोग
लंदन में शिक्षा प्राप्त कर रहे डॉ. आंबेडकर की आर्थिक कठिनाइयों में शाहूजी महाराज ने सहायता दी। उन्होंने फीस और भारत वापसी के लिए फंड भेजा, साथ ही रमाबाई आंबेडकर और मूकनायक अखबार के लिए भी मदद की।
आरक्षण नीति की शुरुआत
26 जुलाई 1902 को शाहूजी महाराज ने कोल्हापुर रियासत की 50% सरकारी नौकरियों को पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षित कर दिया। यह भारत में आरक्षण की नींव थी। उन्होंने छुआछूत, बेगार और जातीय भेदभाव को समाप्त करने के लिए कठोर कदम उठाए।
उनके अनुसार, “जाति हमारी प्रगति में बाधा है, इसका उन्मूलन आवश्यक है।”