राजनीति: इतिहास में भी झांकना होगा
सरदार वल्लभभाई पटेल निश्चित रूप से देश के बड़े नेताओं में थे और यह कहना कि पंडित नेहरू ने जम्मू-कश्मीर के मामले में उनकी नहीं चलने दी थी और उन्होंने अपनी इस नियति को स्वीकार कर लिया था, नेहरू के साथ पटेल के नायकत्व का भी अपमान है। इतिहास गवाह है कि उन्हें आजीवन पंडित नेहरू का विश्वास प्राप्त रहा था।
जम्मू-कश्मीर को संविधान के अनुच्छेद 370 से मुक्ति दिलाने और दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांटने के केंद्र सरकार के फैसले के समर्थन या विरोध के प्रश्न पर मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस बिखर-सी गई है। अनुच्छेद 370 को खत्म करने और इसके स्थान पर नया संशोधित अनुच्छेद लाने संबंधी संकल्प (संवैधानिक प्रस्ताव) पर चर्चा के दौरान लोकसभा में कांग्रेस के एक नेता द्वारा यह पूछे जाने पर कि जब यह मामला संयुक्त राष्ट्र में है तो द्विपक्षीय या आंतरिक मामला कैसे हो सकता है और इससे संबंधित निर्णय कैसे लाभकारी हो सकते हैं, तो इस पर कांग्रेस अध्यक्ष बहुत नाराज हुए।
गौरतलब है कि इस सिलसिले में सत्तापक्ष द्वारा निरंतर कहा जाता रहा है कि आजादी के बाद पांच सौ इकसठ देशी रियासतों का सफलतापूर्वक विलय तत्कालीन गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल की देन है लेकिन जम्मू-कश्मीर का मामला प्रधानमंत्री के तौर पर खुद पंडित जवाहरलाल नेहरू देख रहे थे और उन्हीं के कारण हमें इस राज्य की विशेष स्थिति और अनुच्छेद-370 का सामना करना पड़ा। इतना ही नहीं, उन्हीं की वजह से 1954 में अनुच्छेद-35 ए का भी उदय हुआ, जिससे कश्मीर के मूल निवासियों की पहचान की तिथि निर्धारित हुई। लेकिन यह कथन न पूरी तरह दुरुस्त है, न तथ्य।
सच्चाई यह है कि 15 अगस्त, 1947 तक जम्मू-कश्मीर भारत में शामिल ही नहीं हुआ था। उसने पाकिस्तान के निकट रहने की इच्छा प्रकट की थी और उससे दो समझौते भी किए थे। लेकिन पाकिस्तान समर्थित कबाइली आक्रमण के बाद उसे अस्तित्व रक्षा के लिए भारत से मदद मांगनी पड़ी। उस वक्त भी कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने शासक बने रहने की अपनी इच्छा जताई थी। इसी कारण कश्मीर के संबंध में विशेष व्यवस्था करनी पड़ी और मामले में संयुक्त राष्ट्र का भी दखल हुआ, जिसने वास्तविक नियंत्रण रेखा खींच कर उसकी रक्षा के लिए हो रही भारत-पाक भिड़ंत को सीमित करके दोनों को अलग-अलग रहने का निर्देश दिया था।
यहां समझने की बात यह है कि भारत उस वक्त महाराजा हरि सिंह की सैन्य मदद की मांग नहीं मानता तो समूचा जम्मू-कश्मीर पहले कबाइलियों के और फिर पाकिस्तान के कब्जे में चला जाता। तब उसका जो हिस्सा अभी भारत के पास है, वह भी नहीं होता। यह जानना दिलचस्प होगा कि महाराजा हरि सिंह को कश्मीर का राज अपने पिता गुलाब सिंह से उत्तराधिकार में मिला था, जबकि उनके पिता ने उसे एक करोड़ रुपए में अफगानिस्तान से खरीदा था। इस सौदे की, जिसमें गुलाब सिंह केवल पचहत्तर लाख रुपए ही दे पाए थे, पुष्टि राजधानी दिल्ली के राष्ट्रीय अभिलेखागार में स्थित अभिलेखों से की जा सकती है। साफ है कि उन दिनों जम्मू-कश्मीर के वास्तविक सत्ताधीश महाराजा हरि सिंह ही थे और उन्होंने कश्मीर को भारत में कुछ शर्तों के तहत ही शामिल करना स्वीकार किया तो उनकी अवज्ञा नहीं की जा सकती थी। आज भी उन्हें अमान्य नहीं ठहराया जा सकता। न ही ठहराया जा रहा है।
सरदार पटेल के नेतृत्व में पांच सौ इकसठ रियासतों के सफल एकीकरण और विलय पर जाएं तो उनमें हैदराबाद और जूनागढ़ दो ऐसी रियासतें थीं जो भारत में शामिल होने को राजी नहीं थीं। इनमें हैदराबाद में पुलिस कार्रवाई के बावजूद भारत ने यह सिद्धांत छोड़ा नहीं था कि वह रियासतों की जनता की इच्छा को ही निर्णायक मानता है। इसीलिए जम्मू-कश्मीर के महाराजा का विलय पत्र उसके तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड माउंटबैटन के समक्ष पेश किया गया तो जनता की इच्छा पर तकिया रखते हुए उन्होंने उसको अस्थायी रूप से ही स्वीकार किया। इससे जुड़े प्रश्न बाद में संयुक्त राष्ट्र में भी उठे, जहां भारत के रक्षा मंत्री कृष्णमेनन के साथ सात दिन चली बहस के बाद पाकिस्तान के विदेश मंत्री ने कहा था, ‘इस शानदार बहस के लिए धन्यवाद। लेकिन आपने जहां-जहां हैदराबाद कहा है, वहां कश्मीर और जहां कश्मीर कहा है, वहां हैदराबाद रख दीजिए, तो आपके तर्क लागू नहीं होते।’
प्रसंगवश, इंग्लैड की संसद ने भारत के विभाजन का निर्णय किया तो उसके दोनों टुकड़ों का क्षेत्र हिंदू-मुसलमान के नाम पर नहीं बल्कि इस आधार पर तय किया था कि जहां कांग्रेस जीती है, वह भारत और जहां मुसलिम लीग जीती है, वह पाकिस्तान होगा। इसीलिए पूरब और पश्चिम में दो पाकिस्तान बने, जबकि पख्तूनिस्तान भारत के हिस्से में आया। लेकिन भारत को लगा कि उसके लिए अपनी मुख्य भूमि से अति दूर पख्तूनिस्तान का शासन चलाना आसान नहीं होगा, तो उसने जनमत संग्रह के बहाने उससे मुक्ति पा ली। वहां के कांग्रेसी नेता खान अब्दुल गफ्फार खां (सीमांत गांधी) ने इसका विरोध भी किया, लेकिन उसका कोई फायदा नहीं हुआ और जनमत संग्रह के परिणामों के अनुसार उसे पाकिस्तान को सौंप दिया गया। इस सबके लिए स्वाभाविक तौर पर उन्हें ही दोषी ठहराया जाएगा, जो उस समय सत्तारूढ़ थे। लेकिन उस वक्त देश की रचना, निर्माण और व्यवस्था संचालन के संबंध में यह नहीं कहा जा सकता कि जम्मू-कश्मीर या अन्य प्रश्नों पर जवाहरलाल नेहरू ने सरदार पटेल की असहमतियों को दरकिनार करके फैसले किए। ऐसा होता तो क्या पटेल उनके मंत्रिमंडल में बने रहते?
हम जानते हैं कि जम्मू-कश्मीर में धारा-370 की विशेष व्यवस्था से देश के अन्य भाग प्रभावित नहीं हो रहे थे। इसके बावजूद जो सत्ताधारी नेता कश्मीर संबंधी स्थितियों के लिए पंडित नेहरू को ही दोषी ठहराना चाहते हैं, उनका अपना मूल्यांकन हो सकता है लेकिन जब नेहरू आजादी की लड़ाई लड़ या कश्मीर को भारत के साथ जोड़ रहे थे, तब उनके पुरखे खुद को राजनीति से परे और सांस्कृतिक संगठन कह कर शतुर्मुर्ग बने हुए थे।
दूसरे पहलू पर जाएं तो देश में अब तक सत्रह वर्षों तक गैर-कांग्रेसी सरकारें रह चुकी हैं, लेकिन उनमें से किसी ने भी जम्मू-कश्मीर के उस हिस्से को भारत में शामिल करने के प्रयत्न नहीं किए, जो पाक कब्जे में है, जबकि महाराजा हरि सिंह ने भारत में पूरे कश्मीर का विलय किया था। इसके चलते भारतीय कश्मीर छोटे से क्षेत्र तक सीमित होकर रह गया है। यकीनन, उसे साथ रखने की इच्छा सभी भारतवासियों की है, लेकिन विडंबना यह कि देश के सत्ताधीश जब भी नीतिगत रूप से वास्तविक स्थितियों का परीक्षण करते हैं, उसे अपनी राजनीतिक पसंद और नापसंद से जोड़ देते हैं। सरदार वल्लभभाई पटेल निश्चित रूप से देश के बड़े नेताओं में थे और यह कहना कि पं. नेहरू ने जम्मू-कश्मीर के मामले में उनकी नहीं चलने दी थी और उन्होंने अपनी इस नियति को स्वीकार कर लिया था, नेहरू के साथ पटेल के नायकत्व का भी अपमान है। इतिहास गवाह है कि उन्हें आजीवन पंडित नेहरू का विश्वास प्राप्त रहा था।
असहमतियां और मतभेद हर काल में होते रहे हैं। इसे यों समझ सकते हैं कि आज अनुच्छेद 370 खत्म करने को लेकर केंद्र सरकार के समर्थन में भी लोग हैं और विरोधी भी। यह और बात है कि देश का बड़ा हिस्सा सरकार के फैसले के पक्ष में खड़ा दिखेगा। ऐसे में राजनीतिक मतभेदों की बिना पर किसी पार्टी या नेता या सरकार के खिलाफ अभियान उचित नहीं कहा जा सकता।
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