नेहरू जैसा त्याग किसी ने नहीं किया, मैं उनका वफादार: पटेल
1961 में प्रधानमंत्री नेहरू ने ‘सरदार’ सरोवर बांध की नींव रखी. यह सरदार पटेल के प्रति उनकी विनम्र श्रद्धांजलि थी जिन्होंने आज़ादी और बंटवारे के जटिल दिनों में उनका बखूबी साथ दिया था. नेहरू, पटेल के अनन्य प्रशंसक थे, हालांकि वैचारिक आधार पर दोनों में मतभेद थे और यह कोई छुपी बात नहीं थी. यह वह दौर था जब मतभेद का अर्थ मनभेद नहीं होता था और एक ही पार्टी में रहते हुए नेता, विभिन्न विषयों पर लिखित असहमतियां जताते हुए बहस चलाते थे. सारी दुनिया जान जाती थी कि अमुक विषय पर अमुक नेता के क्या विचार हैं.
कभी पटेल ने आरएसएस को महात्मा गांधी की हत्या के लिए ज़िम्मेदार ठहराते हुए उस पर प्रतिबंध लगाया था, लेकिन उनकी मौत के बाद आरएसएस ने नेहरू के बरक्स पटेल को खड़ा करने का सुचिंतित अभियान चलाया. कुछ इस तरह कि जैसे 500 से ज़्यादा रियासतों के भारत संघ में विलय के ‘कारनामे’ में प्रधानमंत्री नेहरू की कोई भूमिका ही नहीं थी, सबकुछ अकेले ‘गृहमंत्री’ पटेल ने कर डाला था. और कश्मीर की समस्या सिर्फ़ और सिर्फ़ ‘प्रधानमंत्री’ नेहरू की देन थी, गृहमंत्री पटेल का उससे कोई लेना–देना नहीं था.
नेहरू के प्रधानमंत्री बनने को भी पटेल के ख़िलाफ़ षडयंत्र की तरह पेश किया जाता है. सोशल मीडिया में तो इस सिलसिले में सच्चे–झूठे क़िस्सों से भरा, पूरा पाठ्यक्रम मौजूद है.
हद तो ये है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कह रहे हैं कि पटेल को इतिहास से मिटाने की कोशिश हुई जबकि वे उसी गुजरात से आते हैं जहां दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा बांध ‘सरदार’ को समर्पित है. यह ‘समर्पण’ नेहरू की ओर से ही था. मोदी ने यह भी कहा था कि नेहरू, सरदार पटेल की अंत्येष्टि में शामिल नहीं हुए थे, जबकि यह सरासर झूठ है. अफ़सोस होता है कि भारत के प्रधानमंत्री के ज्ञान का स्रोत ‘व्हाट्सऐप युनिवर्सिटी’ है.
इस मुद्दे पर क्यों ना सीधे पटेल की ही राय जान ली जाए. सोशल मीडिया की अफ़वाहों से बाहर जाकर नेहरू और पटेल के पत्र पढ़े जाएं.
भारत की आज़ादी का दिन करीब आ रहा था. मंत्रिमंडल के स्वरूप पर चर्चा हो रही थी. एक अगस्त 1947 को नेहरू ने पटेल को लिखा–
“कुछ हद तक औपचारिकताएं निभाना जरूरी होने से मैं आपको मंत्रिमंडल में सम्मिलित होने का निमंत्रण देने के लिए लिख रहा हूं. इस पत्र का कोई महत्व नहीं है, क्योंकि आप तो मंत्रिमंडल के सुदृढ़ स्तंभ हैं.”
पटेल ने तीन अगस्त को नेहरू के पत्र के जवाब में लिखा–
“आपके एक अगस्त के पत्र के लिए अनेक धन्यवाद. एक–दूसरे के प्रति हमारा जो अनुराग और प्रेम रहा है तथा लगभग 30 वर्ष की हमारी जो अखंड मित्रता है, उसे देखते हुए औपचारिकता के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता. आशा है कि मेरी सेवाएं बाकी के जीवन के लिए आपके अधीन रहेंगी. आपको उस ध्येय की सिद्धि के लिए मेरी शुद्ध और संपूर्ण वफादारी और निष्ठा प्राप्त होगी, जिसके लिए आपके जैसा त्याग और बलिदान भारत के अन्य किसी पुरुष ने नहीं किया है. हमारा सम्मिलन और संयोजन अटूट और अखंड है और उसी में हमारी शक्ति निहित है. आपने अपने पत्र में मेरे लिए जो भावनाएं व्यक्त की हैं, उसके लिए मैं आपका कृतज्ञ हूं.”
पटेल की ये भावनाएं सिर्फ औपचारिकता नहीं थी. अपनी मृत्यु के करीब डेढ़ महीने पहले उन्होंने नेहरू को लेकर जो कहा वो किसी वसीयत की तरह है. दो अक्टूबर, 1950 को इंदौर में एक महिला केंद्र का उद्घाटन करने गये पटेल ने अपने भाषण में कहा–
“अब चूंकि महात्मा हमारे बीच नहीं हैं, नेहरू ही हमारे नेता हैं. बापू ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था और इसकी घोषणा भी की थी. अब यह बापू के सिपाहियों का कर्तव्य है कि वे उनके निर्देश का पालन करें और मैं कोई गैरवफादार सिपाही नहीं हूं.”
(‘सरदार पटेल का पत्र व्यवहार, 1945-50’ प्रकाशक– नवजीवन पब्लिशिंग हाउस, अहमदाबाद)
साफ़ है, पटेल को नेहरू की जगह पहला प्रधानमंत्री न बनने पर संघ परिवार के लोग जैसा अफ़सोस जता रहे हैं, वैसा अफ़सोस पटेल को नहीं था. वे आरएसएस नहीं, गांधी के सपनों का भारत बनाना चाहते थे.
दरअसल, जो लोग आजकल पटेल को नेहरू के ख़िलाफ़ खड़ा कर रहे हैं, उन्हें पटेल को जानने–समझने या उनका लिखा पढ़ने में कोई रुचि नहीं है. वे सिर्फ पटेल की आड़ लेकर पं. नेहरू से बदला लेना चाहते हैं जिनके आधुनिक, लोकतांत्रिक, समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष रुख ने उनके ‘हिंदूराष्ट्र प्रोजेक्ट’ को गहरी चोट पहुंचाई थी.
यह आरोप भी सरासर ग़लत है कि सरदार पटेल को भुला दिया गया. आजकल फेसबुक पर एक पोस्ट काफ़ी चर्चित है, जो इस दुष्प्रचार की पोल खोलती है. पढ़िए–
“मप्र का शासन जिस भवन से चलता है उसका नाम वल्लभ भवन है, अभी नहीं शुरु से है. गुजरात विधानसभा का नाम सरदार पटेल विधानसभा भवन है. देश के बड़े पुलिस अफ़सर (आईपीएस) जहां प्रशिक्षण लेते हैं, हैदराबाद स्थित उस अकादमी का नाम सरदार पटेल के नाम पर है. सूरत के नेशनल इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलॉजी का नाम सरदार पटेल के नाम पर है, गुजरात में सरदार पटेल के नाम पर विश्वविद्यालय हैं, आनंद में वल्लभ विद्यानगर है, मुबंई में नेशनल टेक्निकल इंस्टीट्यूट है, जोधपुर में पुलिस एवं सिक्योरिटी यूनिवर्सिटी है, गुजरात में उनका मेमोरियल है, म्यूजियम है. देशभर में स्कूल और कॉलेज के नाम सरदार पटेल के नाम पर हैं, सड़कें हैं, पार्क हैं, स्टेडियम और एयरपोर्ट है. और हां, अभी–अभी मोदी ने देश के जिस सबसे बड़े बांध का शुभारंभ किया है वो “सरदार सरोवर” है. इसका शिलान्यास पंडित नेहरु ने किया था. लेकिन आज प्रधानमंत्री मोदी ने अपने संबोधन में कहा कि सरदार साहब को जानबूछ कर इतिहास में ज़गह नहीं दी गई, उनका नाम इतिहास से मिटाने की कोशिश की गई. इनके “असत्य” की कोई सीमा नहीं है.”
यह क़िस्सा पढ़िए जिसे फ़ेसबुक पर महिपाल सारस्वत ने लिखा है–
“सरदार पटेल मेडिकल कॉलेज, बीकानेर को लेकर तो किस्सा मशहूर है कि जब बीकानेर के लोग इसके उद्घाटन को लेकर पंडित नेहरू से समय लेने दिल्ली गए और उन्होनें कहा कि हम बीकानेर में मेडिकल कॉलेज खोल रहे है जिसका नाम मोतीलाल नेहरू के नाम पर रखना चाहते है तो नेहरू ने कहा– अगर आप बीकानेर मेडिकल कॉलेज का नाम सरदार पटेल के नाम पर रखें तो मैं आऊंगा अन्यथा मेरा आना संभव नहीं, ये 1959 की बात है, सनद रहे पटेल 1950 में दिवंगत हो गए थे.”
क्या भारत को विश्वगुरु समझने या बनाने का दावा करने वाले आरएसएस और उससे जुड़े संगठनों और नेताओं से सत्य के प्रति आग्रही होने का निवेदन किया जा सकता है? नेहरू के ख़िलाफ इस असत्य प्रचार से सबसे ज़्यादा दुख तो पटेल को ही हुआ होता. वे आरएसएस को कभी माफ़ नहीं करते. वैसे भी राजनीति में शामिल ना होने का पटेल से किया वादा तो आरएसएस तोड़ ही चुका है.
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