राजाजी के लिए नेहरू की जोर-आजमाइश, पटेल का डर... डॉ. राजेन्द्र प्रसाद कैसे बने भारत के पहले राष्ट्रपति?
जवाहरलाल नेहरू नहीं चाहते थे कि डॉ. राजेन्द्र प्रसाद भारत के प्रथम राष्ट्रपति बनें। वह गवर्नर जनरल सी. राजगोपालाचारी के हक में थे। कांग्रेस की भरी सभा में नेहरू के प्रस्ताव का जोरदार विरोध हुआ, तब सरदार वल्लभभाई पटेल ने बात संभाली।
स्वतंत्र भारत का पहला राष्ट्रपति कौन हो? प्रधानमंत्री के रूप में जवाहरलाल नेहरू का नाम तय था। बात राष्ट्रपति पद की थी जिसकी चर्चा आजादी के साथ ही शुरू हो चुकी थी। संविधान तैयार होते-होते, 1949 तक कांग्रेस के दो बड़े नेताओं के नाम दावेदारों की सूची में सबसे ऊपर थे- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद और चक्रवर्ती राजगोपालाचारी। प्रसाद संविधान सभा के अध्यक्ष थे जिसे राष्ट्रपति का चुनाव करना था। राजगोपालाचारी भारत के गवर्नर-जनरल थे। अखबारों में खुसुर-पुसुर चलने लगी तो प्रसाद ने जून 1949 में एक बयान जारी किया। उन्होंने कहा कि 'किसी पद के लिए मेरे और राजाजी के बीच किसी प्रतिद्वंदिता का कोई सवाल ही नहीं उठता। प्रसाद ने जनता से किसी तरह के दुष्प्रचार में लिप्त न होने की अपील की। अटकलों का दौरा थोड़ा शांत हो गया मगर अंदरखाने अलग ही सियासत चल रही थी। पढ़ें स्वतंत्र भारत के पहले राष्ट्रपति चुनाव की कहानी।
नेहरू ने प्रसाद से कहा, आप बढ़ाइए राजाजी का नाम
कांग्रेस के बाकी नेताओं से बात किए बिना ही नेहरू ने राजगोपालाचारी को राष्ट्रपति सोच लिया था। लेकिन प्रसाद बाबू कोई छुटभैये नेता तो थे नहीं, इसलिए नेहरू ने 10 सितंबर 1949 को उन्हें एक पत्र लिखा। नेहरू ने प्रसाद से कहा, 'जल्द ही हमें गणतंत्र के राष्ट्रपति के चुनाव के विषय में फैसला करना होगा.... मैंने वल्लभभाई से इस बारे में चर्चा की है और हमें लगा कि.... राजाजी शायद राष्ट्रपति बने रहेंगे... इसी वजह से वल्लभभाई और मैंने महसूस किया कि एकमत से चुनाव के लिए आपकी ओर से राजाजी का नाम रखा जाए...।' (तस्वीरें : TOI आर्काइव्स)
प्रसाद की वह चिट्ठी पाकर पटेल हैरान रह गए
प्रसाद को नेहरू के उस पत्र से बड़ी ठेस पहुंची। वह हैरान थे कि नेहरू और पटेल उन्हें 'डिक्टेट' कर रहे हैं। प्रसाद ने 11 सितंबर 1949 को जो जवाब लिखकर भेजा, उसे पटेल को भी भिजवाया। इसमें प्रसाद ने लिखा, 'इस पत्र की लंबाई के लिए क्षमा कीजिए... मैं और सम्मानजनक विदाई चाहता था...।' पटेल भी हैरान थे कि नेहरू ने जब उनसे बात नहीं की तो उनका नाम क्यों घसीट लिया। नेहरू ने उसी दिन प्रसाद को खत भेजा और आज की भाषा में कहें तो पटेल को CC में रखा।
नेहरू ने कहा, 'जो मैंने आपको लिखा, उसका वल्लभभाई से कोई लेना-देना नहीं है। मैंने बिना वल्लभभाई का संदर्भ दिए या उनका नाम लिए खुद से वह सब लिखा था... वल्लभभाई इस बारे में कुछ नहीं जानते। मैं बेहद क्षमा प्रार्थी हूं यदि मैंने आपको ठेस पहुंचाई है या यह महसूस कराया कि आपको सम्मान देने में मुझसे कमी रह गई।'
राजाजी के नाम पर क्यों अड़े थे नेहरू?
नेहरू का मानना था कि बतौर गवर्नर-जनरल, राजाजी पहले से बड़े कूटनीतिक प्रतिनिधिमंडलों की अगवानी के प्रोटोकॉल की बारीकियां जानते हैं। नेहरू ने लिखा, 'राजाजी को प्रोटोकॉल की इन बारीकियों का अभ्यस्त होने में थोड़ा समय लगा है। बदलाव का मतलब होगा कि इन प्रक्रियाओं से फिर गुजरना पड़ेगा। इन वजहों से मैंने सोचा कि राजाजी ही बने रहें।' नेहरू और प्रसाद, दोनों ही अपनी चिट्ठियों की एक प्रति पटेल को भिजवाते रहे।
पटेल ने 16 सितंबर 1949 को एक पत्र में लिखा, '...मैंने ऊपर जो कुछ भी कहा है, मुझे विश्वास है कि आप फिर से समीक्षा करेंगे और किन्हीं भावनाओं के आगे झुक नहीं जाएंगे जो आपने जवाहरलाल को लिखे पत्र में जताई हैं.... आप मामले को फैल जाने दीजिए और दिमाग से यह बात निकाल दीजिए कि हमारे बीच कोई दूरी आ सकती है। हम एक-दूसरे के उतने ही करीब रहेंगे जितना हम विगत वर्षों में रहे हैं।'
नेहरू की फजीहत, पटेल का मोनोलॉग
नेहरू 6 अक्टूबर को ब्रिटेन और अमेरिका के लिए रवाना होने वाले थे। वह चाहते थे कि जाने से पहले राजाजी के पक्ष में फैसला हो जाए। उन्होंने अपना प्रस्ताव संविधान सभा के कांग्रेस दल के सामने रखने का फैसला किया। पटेल ने रोकने की कोशिश की मगर नेहरू नहीं माने। उस बैठक के बारे में वी. शंकर ने लिखा है, 'जैसे ही उन्होंने (नेहरू) ने ऐसा किया, माहौल तनावपूर्ण हो गया। उनका भाषण कुछ उत्साही सदस्यों ने रोक दिया, रुकावट बड़ी सम्मानजनक नहीं थी... नेहरू के बाद कई और लोग बोले और सबने प्रस्ताव का बेहद कड़े शब्दों में विरोध किया। चर्चा काफी उग्र हो चली थी और इसमें कोई संदेह नहीं था कि पार्टी इस प्रस्ताव के साफ खिलाफ थी। अब मंच पर सरदार ने माइक संभाला और करीब 10 मिनट तक बोलते रहे। पटेल ने सदस्यों से मर्यादा बनाए रखने की अपील की।'
नेहरू का प्रसाद को आखिरी ऑफर!
पटेल के दखल से यह तो तय हो गया कि नेहरू का प्रस्ताव गिरेगा नहीं। उसी रात नेहरू ने अपने हाथों से पटेल को लिख भेजा कि यात्रा से लौटकर वह त्यागपत्र दे देंगे। हालांकि, ऐसा हुआ नहीं। भारत लौटते ही वह राजाजी के चुनाव में लग गए। उन्होंने एक और दांव चला। दिसंबर 1949 को नेहरू ने प्रसाद को लिखा कि पार्टी बेहद अजीबोगरीब स्थिति में पहुंच गई है। नेहरू ने प्रसाद को पार्टी अध्यक्ष या योजना आयोग का चेयरमैन बनाने का ऑफर दिया। प्रसाद ने 12 दिसंबर 1949 को जवाब में नेहरू को दो टूक लिखा-
'मैं सहमत हूं कि गणतंत्र के राष्ट्रपति से जुड़े फैसले में देरी नहीं करनी चाहिए और अगर मैं कोई मदद कर सकता हूं तो मैं तैयार हूं। किन्हीं कारणों से - चाहे वह न्यायसंगत हों या नहीं- सभा के काफी सदस्यों की यह राय है कि मैं गणतंत्र के राष्ट्रपति का पद स्वीकार करूं। इस संबंध में अलग-अलग लोगों से बात करने के बाद, ऐसा लगता है कि अगर मैंने प्रस्ताव नहीं स्वीकार किया तो वे इसे 'विश्वासघात' के रूप में देखेंगे। उन्होंने इस शब्द का इस्तेमाल किया है और मुझसे कहा कि मैं उनके साथ 'विश्वासघात' न करूं...।'
पटेल का डर, बस दूल्हा भाग न जाए...
पटेल फैसला कर चुके थे कि वह प्रसाद का साथ देंगे। 18 दिसंबर 1949 को प्रसाद को पत्र में पटेल ने लिखा, 'आपको जवाहरलाल के विचार पता हैं। आप अनुमान लगा सकते हैं कि मौलाना क्या महसूस करते हैं। दूसरे शब्दों में, आपने मुझपर बड़ा बोझ लाद दिया है। मैं नहीं जानता कि क्या करूं। जवाहरलाल मुझे बताते हैं कि वह मेरे लौटने पर इस बारे में मुझसे चर्चा करेंगे।' इसके बाद पटेल ने प्रसाद के पक्ष में गोलबंदी शुरू कर दी। इतिहासकार प्रफेसर मक्खन लाल ने द प्रिंट के लिए अपने लेख में कहा है कि जब डीपी मिश्रा ने पूछा कि प्रसाद जीतने की कितनी संभावना है तो उन्होंने जवाब दिया, 'अगर दूल्हा पालकी छोड़कर भाग न जाए तो शादी नक्की।'
पटेल का इशारा सौम्य, विनम्र और शर्मीले प्रसाद की ओर था। उन्हें डर था कि कहीं राजाजी के पक्ष में प्रसाद रिटायर होने को राजी न हो जाएं। हालांकि ऐसा हुआ नहीं। संविधान सभा ने 1950 में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को ही भारत का पहला राष्ट्रपति चुना। वह 1952 में हुआ पहला राष्ट्रपति चुनाव जीते और 1957 में दूसरा भी। राजेन्द्र बाबू मई 1962 तक भारत के राष्ट्रपति रहे। उनका कार्यकाल सभी राष्ट्रपतियों में सबसे लंबा है।
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