जाने किस बजह से नेहरू बने थे देश के पहले प्रधानमंत्री, वरना सरदार पटेल का बनना था तय
15 अगस्त, 1947 को भारत ब्रिटिश रूल से आजाद हुआ और जब ऐसा हुआ तो पूरे देश में खुशियां मनाई गईं। हर कोई देश के पहले प्रधानमंत्री बनने का इंतजार कर रहा था। कैटेगरी में दो लोग थे सरदार पटेल और जवाहरलाल नेहरू, लेकिन कांग्रेस पार्टी के बार-बार कहने पर जवाहरलाल नेहरू को आजाद भारत
15 अगस्त, 1947 को भारत ब्रिटिश रूल से आजाद हुआ और जब ऐसा हुआ तो पूरे देश में खुशियां मनाई गईं। हर कोई देश के पहले प्रधानमंत्री बनने का इंतजार कर रहा था। कैटेगरी में दो लोग थे सरदार पटेल और जवाहरलाल नेहरू, लेकिन कांग्रेस पार्टी के बार-बार कहने पर जवाहरलाल नेहरू को आजाद भारत का पहला प्रधानमंत्री बनाए गए। जवाहरलाल नेहरू आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री बने।
क्या उस समय प्रधानमंत्री पद के असली हकदार नेहरू की बजाय सरदार पटेल थे ? क्या सरदार वल्लभभाई पटेल प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहते थे ? क्या सरदार पटेल को प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया गया ? 1947 में इस पद के लिए नेहरू का चुनाव कैसे हुआ ? जो अब तक हम पढ़ते-सुनते आए हैं कहीं वह इतिहास का इकतरफा आंकलन तो नहीं है। क्या है इसकी वजह आइए जानते हैं।
इस वजह से पटेल नहीं बल्कि नेहरू बने पीएम
देश में एक वर्ग द्वारा यह बात कही जाती रही है कि सरदार पटेल देश के पहले प्रधानमंत्री होते तो ऐसा होता, वैसा होता। यह अलग बात है कि सरदार पटेल पीएम बनते भी तो आजादी के महज तीन साल बाद तक ही रह पाते, क्योंकि 1950 में उनका निधन हो गया था। लेकिन क्या पटेल के लिए कभी पीएम बनने के हालात थे? क्या वे पीएम बन सकते थे? इस सवाल का एक साफ जवाब तो यह है कि जब तक नेहरू कांग्रेस में थे, तब तक तो ऐसा नहीं हो पाता।
इतिहासकारो के अनुसार, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ब्रिटिश हुकूमत काफी कमजोर हो गई थी। 1946 में ब्रिटिश सरकार ने कैबिनेट मिशन प्लान बनाया, जिसके तहत कुछ अंग्रेज अधिकारियों को ये जिम्मेदारी मिली कि वे भारत की आजादी के लिए भारतीय नेताओं से बात करें। फैसला ये हुआ कि भारत में एक अंतरिम सरकार बनेगी। अंतरिम सरकार के तौर पर वायसराय की एक्जिक्यूटिव काउंसिल बननी थी।
अंग्रेज वायसराय को इसका अध्यक्ष होना था, जबकि कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष को इस काउंसिल का वाइस प्रेसिडेंट बनना था। आगे चलकर आजादी के बाद इसी वाइस प्रेसिडेंट का प्रधानमंत्री बनना लगभग तय था। उस समय मौलाना अबुल कलाम आजाद कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष थे। कई बड़े नेताओं के जेल में रहने की वजह से वह इस पद पर 1940 से ही बने हुए थे। मौलाना आजाद इस वक्त पर पद नहीं छोड़ना चाहते थे, लेकिन महात्मा गांधी के दबाव में वे पद छोड़ने के लिए राजी हुए और फिर इसके बाद कांग्रेस के अगले अध्यक्ष की तलाश शुरू हुई जो भारत के पहले प्रधानमंत्री भी बनते।
अप्रैल 1946 का महीना था। कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक बुलाई गई। बैठक हो तो रही थी पार्टी के नए अध्यक्ष का नाम तय करने के लिए, लेकिन असलियत में आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री का नाम तय होने जा रहा था। बैठक में महात्मा गांधी, नेहरू, सरदार पटेल, आचार्य कृपलानी, राजेंद्र प्रसाद, खान अब्दुल गफ्फार खान के साथ कई बड़े कांग्रेसी नेता शामिल थे। महात्मा गांधी पंडित नेहरू को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाना चाहते थे। वह एक लोकप्रिय जन नेता थे, लेकिन कांग्रेस की प्रांतीय समितियों में उनका समर्थन करने वाले कम लोग थे।
15 में से 12 वोट पड़े सरदार पटेल के समर्थन में
बैठक में तब पार्टी के महासचिव आचार्य जे बी कृपलानी ने कहा ‘बापू ये परपंरा रही है कि कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव प्रांतीय कांग्रेस कमेटियां करती हैं, किसी भी प्रांतीय कांग्रेस कमेटी ने जवाहर लाल नेहरू का नाम अध्यक्ष पद के लिए प्रस्तावित नहीं किया है। 15 में से 12 प्रांतीय कांग्रेस कमेटियों ने सरदार पटेल का और बची हुई 3 कमेटियों ने मेरा और पट्टाभी सीतारमैया का नाम प्रस्तावित किया है।’ इसका यह साफ मतलब था कि कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए सरदार पटेल के पास बहुमत था, वहीं जवाहर लाल नेहरू का नाम ही प्रस्तावित नहीं था।
महात्मा गांधी के दबाव में आया नेहरू का नाम
जे बी कृपलानी की बातों का मतलब साफ था कि कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए सरदार पटेल के पास बहुमत है वहीं जवाहर लाल नेहरू का नाम ही प्रस्तावित नहीं था। ये बात उस समय तक जगजाहिर हो चुकी थी कि महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू को भारत के प्रधानमंत्री के तौर पर देखना चाहते थे। मौलाना आजाद को जब पद से हटने के लिए कहा तब भी उन्होंने यह बात छुपाई नहीं थी।
इस अहम बैठक से कुछ दिन पहले ही बापू ने मौलाना को लिखा था कि “अगर मुझसे पूछा जाए तो मैं जवाहरलाल को ही प्राथमिकता दूंगा। मेरे पास इसकी कई वजह हैं। अभी उसकी चर्चा क्यों की जाये ?” महात्मा गांधी के इस रुख के बावजूद 1946 के अप्रैल महीने में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में चर्चा के लिए भी जवाहर लाल नेहरू का नाम प्रस्तावित नहीं हुआ।
आखिरकार आचार्य कृपलानी को कहना पड़ा, ‘बापू की भावनाओं का सम्मान करते हुए मैं जवाहर लाल का नाम अध्यक्ष पद के लिए प्रस्तावित करता हूं।’ यह कहते हुए आचार्य कृपलानी ने एक कागज पर जवाहरलाल नेहरू का नाम खुद से प्रस्तावित कर दिया। कई दूसरे वर्किंग कमेटी के सदस्यों ने भी इस कागज पर अपने हस्ताक्षर किए। ये कागज बैठक में मौजूद सरदार पटेल के पास भी पहुंचा। उन्होंने भी उस पर हस्ताक्षर कर दिए यानी अध्यक्ष पद के लिए नेहरू के नाम को प्रस्तावित किया गया। क्यूंकि सरदार पटेल गांधी का बहुत सम्मान करते थे और उनकी बात को वे टाल नहीं पाए।
बात यहीं नहीं रुकी जवाहरलाल नेहरू का नाम ही प्रस्तावित हुआ था। पार्टी की सहमति नहीं मिली थी। सबसे बड़ी बात सरदार पटेल की सहमति नहीं मिली थी। महासचिव जे बी कृपलानी ने एक और कागज लिया। उस कागज पर उन्होंने सरदार पटेल को उम्मीदवारी वापस लेने का जिक्र किया और उसे सरदार पटेल की तरफ हस्ताक्षर के लिए बढ़ा दिया। बैठक में जे बी कृपलानी साफ साफ सरदार पटेल को कह रहे थे कि जवाहरलाल को अध्यक्ष बनने दें और वो भी निर्विरोध।
सरदार पटेल ने उस कागज को पढ़ा लेकिन उस पर हस्ताक्षर नहीं किए। उस कागज को पटेल ने महात्मा गांधी की तरफ बढ़ा दिया। अब फैसला महात्मा गांधी को करना था। महात्मा गांधी के सामने उनके दो सबसे विश्वसनीय सेनापति बैठे थे। महात्मा गांधी ने भरी बैठक में जवाहरलाल नेहरू से प्रश्न किया ‘जवाहरलाल किसी भी प्रांतीय कांग्रेस कमेटी ने तुम्हारा नाम प्रस्तावित नहीं किया है, तुम्हारा क्या कहना है।’
ये सवाल पंडित जवाहरलाल नेहरू के लिए सबसे मुश्किल सवाल था। ये सवाल सुनते ही उनके चेहरे का रंग उड़ गया वे चुप हो गए। इस सवाल का जवाहरलाल नेहरू ने कोई उत्तर नहीं दिया। वे चुप रहे, भरी बैठक में महात्मा गांधी का ये सवाल जवाहरलाल को ये मौका दे रहा था कि वे सरदार पटेल के प्रति समर्थन का सम्मान करें। उनकी चुप्पी ने सरदार पटेल के पक्ष में आए भारी समर्थन को एक किनारे कर दिया। महात्मा गांधी फिर से एक बार मुश्किल में थे।
एक तरफ उनके सामने सरदार पटेल के समर्थन में पूरी पार्टी खड़ी थी और दूसरी तरफ नेहरू की चुप्पी। उन्हें चु्प्पी और समर्थन में से एक को चुनना था। जब सवाल कठिन हो तो जरूरी नहीं उसका जवाब मौखिक हो। स्पष्टता के लिए बहुत बार भाषा रूकावट पैदा कर देती है ऐसे कठिन समय में जवाहरलाल की चुप्पी ने भारत के भविष्य का रुख मोड़ दिया। नेहरू की चुप्पी को देखते हुए महात्मा गांधी ने सरदार पटेल की तरफ कागज बढ़ा कर हस्ताक्षर करने के लिए कहा। सरदार पटेल ने महात्मा गांधी के निर्णय का कोई विरोध नहीं किया। सरदार ने अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली।
गांधी ने नेहरू को क्यों आगे बढ़ाया
सरदार उस वक्त 70 साल के थे। वे जानते थे कि आजाद भारत को नेतृत्व देने का ये उनके पास आखिरी मौका है। वैसे महात्मा गांधी ने सरदार के साथ ऐसा क्यों किया? इस पर भी खूब चर्चा होती है। पहली बात तो भरोसे की थी, कि आखिर कौन महात्मा की बात को मानेगा। इतिहासकारो के अनुसार, महात्मा गांधी को भरोसा था कि वे सरदार पटेल को कुछ भी कहेंगे वे कभी मना नहीं करेंगे लेकिन नेहरू के मामले में ऐसा नहीं था।
पंडित जवाहरलाल नेहरू के चुने जाने के बाद भी महात्मा गांधी को भरोसा था कि देश को सरदार पटेल की सेवा मिलती रहेगी लेकिन नेहरू इस वक्त पर दूसरे नंबर पर रह कर सरकार में काम करने के लिए तैयार नहीं थे। पटेल भी इस बात को जानते थे कि जवाहर लाल दूसरे नंबर का पद नहीं लेंगे और मुमकिन था कि अगर सरदार पटेल पार्टी की राय के मुताबिक अध्यक्ष और आगे चल कर प्रधानमंत्री बन जाते तो नेहरू उनका साथ नहीं देते। वल्लभ भाई के मुताबिक पद में रह कर जवाहर लाल उदार हो पाएंगे जबकि अध्यक्ष पद नहीं मिलने से वे विपक्ष में चले जाते।
राजमोहन गांधी के मुताबिक सरदार पटेल उस नाजुक वक्त में इस तरह के हालात पैदा नहीं करना चाहते थे जो देश को बांटे। कांग्रेस पार्टी के भीतर, सरदार पटेल की जबरदस्त पकड़ थी। संगठन पर पकड़ के मामले में उनका कोई सानी नहीं था। वे बॉम्बे प्रेजीडेंसी से आते थे। उन्हें पार्टी का फंड रेजर कहा जाता था। दूसरी तरफ जवाहर लाल नेहरू लोगों के बीच में बहुत लोकप्रिय थे। यही वजह थी कि पार्टी में ज्यादातर लोग सरदार को प्रधानमंत्री के रुप में देखना चाहते थे।
कांग्रेस पार्टी में भारी समर्थन मिलने के बाद भी महात्मा गांधी ने सरदार पटेल को क्यों नहीं चुना। इसका जवाब एक साल बाद महात्मा गांधी ने खुद उस समय के वरिष्ठ पत्रकार दुर्गा दास को दिया। इसका जिक्र पत्रकार दुर्गादास ने अपनी किताब ‘कर्जन टू नेहरू एंड आफ्टर’ में किया है। महात्मा गांधी ने उन्हें बताया कि जवाहर लाल नेहरू बतौर कांग्रेस अध्यक्ष अंग्रेजी हुकूमत से बेहतर तरीके से समझौता वार्ता कर सकते थे। इसके अलावा महात्मा गांधी को ऐसा लगता था कि जवाहर लाल अंतरराष्ट्रीय मामलों में भारत का प्रतिनिधित्व सरदार पटेल से बेहतर कर पाएंगे।
पटेल ने भी मान लिया था नेहरू को नेता
तो इन ऐतिहासिक घटनाक्रमों पर विचार करने के बाद यह बात साफतौर से समझी जा सकती है कि नेहरू के रहते सरदार पटेल भारत के प्रधानमंत्री नहीं बन पाते। पटेल की कांग्रेस संगठन पर अच्छी पकड़ थी, लेकिन जन नेता तो नेहरू ही थे। इस बात को सरदार पटेल ने भी स्वीकार कर लिया था। वैसे दूसरे माने या न माने, सरदार पटेल खुद ये मानते थे कि जवाहर लाल नेहरू लोगों के बीच में बहुत लोकप्रिय हैं।
1946 के आसपास की बात है। मुंबई में कांग्रेस की बहुत बड़ी मीटिंग हुई थी मैदान में तकरीबन डेढ़ लाख लोग मौजूद थे। वहां सरदार पटेल के पास एक अमेरिकी पत्रकार भी मौजूद थे। उन्होंने देखा कि लाखों लोग आए हैं। सरदार पटेल ने उनकी तरफ देखकर कहा कि ये सब लोग मेरे लिए नहीं आए हैं ये सब लोग जवाहर के लिए आए हैं।
2 अक्टूबर, 1950 को इंदौर में एक महिला केंद्र का उद्घाटन करने गये पटेल ने अपने भाषण में कहा, ‘अब चूंकि महात्मा हमारे बीच नहीं हैं, नेहरू ही हमारे नेता हैं. बापू ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था और इसकी घोषणा भी की थी. अब यह बापू के सिपाहियों का कर्तव्य है कि वे उनके निर्देश का पालन करें और मैं एक गैर-वफादार सिपाही नहीं हूं.’
नोट- लेखक रामचंद्र गुहा की पुस्तक ‘भारत गांधी के बाद’ और कुछ अन्य स्रोतों पर आधारित
Kurmi World समाज की अनमोल धरोहर की यादों को ताज़ा करने का एक प्रयत्न हैं। हम आपके विचारों और सुझावों का स्वागत करते हैं। हमारे साथ किसी भी तरह से जुड़े रहने के लिए हमें kurmiworld.com@gmail.com पर लिखे, या +91 9918555530 पर संपर्क करे।