जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल के बीच कैसे रिश्ते थे?
पिछले कुछ सालों में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू पर हमले के लिए जिस तरह तत्कालीनी उपप्रधानमंत्री सरदार पटेल का इस्तेमाल किया जा रहा है, वह अभूतपूर्व है.
व्हाट्सऐप संदेशों यह बात तेज़ी से फैलाई गई है कि सरदार पटेल और नेहरू एक दूसरे के विरोधी थे.
पटेल ज़्यादा क़ाबिल थे और प्रधानमंत्री उन्हें ही बनना चाहिए था. यह प्रचार आम तौर पर आरएसएस और उससे जुड़े संगठनों की ओर से होता है.
यहाँ तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी संसद के अपने हालिया संबोधन में कहा कि अगर पटेल प्रधानमंत्री होते तो कश्मीर जैसी समस्या हल हो गई होती.
कैसी बातचीत होती थी दोनों के बीच?ETTY IMAGES
भारत की आज़ादी का दिन क़रीब आ रहा था. मंत्रिमंडल के स्वरूप पर चर्चा हो रही थी. 1 अगस्त 1947 को नेहरू ने पटेल को लिखा:
"कुछ हद तक औपचारिकताएं निभाना जरूरी होने से मैं आपको मंत्रिमंडल में सम्मिलित होने का निमंत्रण देने के लिए लिख रहा हूँ. इस पत्र का कोई महत्व नहीं है, क्योंकि आप तो मंत्रिमंडल के सुदृढ़ स्तंभ हैं."
पटेल ने 3 अगस्त को नेहरू के पत्र के जवाब में लिखा:
''आपके 1 अगस्त के पत्र के लिए अनेक धन्यवाद. एक-दूसरे के प्रति हमारा जो अनुराग और प्रेम रहा है तथा लगभग 30 वर्ष की हमारी जो अखंड मित्रता है, उसे देखते हुए औपचारिकता के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता.
''आशा है कि मेरी सेवाएं बाकी के जीवन के लिए आपके अधीन रहेंगी. आपको उस ध्येय की सिद्धि के लिए मेरी शुद्ध और संपूर्ण वफादारी औऱ निष्ठा प्राप्त होगी, जिसके लिए आपके जैसा त्याग और बलिदान भारत के अन्य किसी पुरुष ने नहीं किया है.''
''हमारा सम्मिलन और संयोजन अटूट और अखंड है और उसी में हमारी शक्ति निहित है. आपने अपने पत्र में मेरे लिए जो भावनाएं व्यक्त की हैं, उसके लिए मैं आपका कृतज्ञ हूं.''
पटेल ने कहा था, नेहरू हमारे नेता हैंस्रोत,HULTON ARCHIVES
पटेल की ये भावनाएं सिर्फ़ औपचारिकता नहीं थी. अपनी मृत्यु के करीब डेढ़ महीने पहले उन्होंने नेहरू को लेकर जो कहा वो किसी वसीयत की तरह है.
2 अक्टूबर, 1950 को इंदौर में एक महिला केंद्र का उद्घाटन करने गये पटेल ने अपने भाषण में कहा, ''अब चूंकि महात्मा हमारे बीच नहीं हैं, नेहरू ही हमारे नेता हैं. बापू ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था और इसकी घोषणा भी की थी. अब यह बापू के सिपाहियों का कर्तव्य है कि वे उनके निर्देश का पालन करें और मैं एक गैर-वफादार सिपाही नहीं हूं.''
('सरदार पटेल का पत्र व्यवहार, 1945-50' प्रकाशक- नवजीवन पब्लिशिंग हाउस, अहमदाबाद)
ऐसा नहीं है कि नेहरू और पटेल में मतभेद नहीं थे, लेकिन मनभेद की कोई गुंजाइश नहीं थी. पटेल यथार्थवादी थे जबकि नेहरू एक स्वप्नदर्शी राजनेता. पटेल की पकड़ संगठन पर ज़्यादा थी, लेकिन देशव्यापी लोकप्रियता में नेहरू का कोई मुक़ाबला नहीं था.
दोनों ही गाँधी के शिष्य थे और यह गाँधी का ही फ़ैसला था कि नेहरू प्रधानमंत्री के रूप में देश की कमान संभालें. वो नेहरू की दृष्टि और वैश्विक स्वीकार्यता को लेकर आश्वस्त थे. एक प्रचार यह भी चलता है कि 'नेहरू वंश' ने राज किया जबकि पटेल के परिजनों को भुला दिया गया.
पटेल के बच्चों की चिंता नेहरू को?
हक़ीक़त ये है कि नेहरू ने जीते-जी अपनी एकमात्र संतना इंदिरा को संसद का मुँह नहीं देखने दिया, मंत्री पद की तो बात ही क्या. वे नेहरू की सहायक के रूप में ही सक्रिय रहीं. 1959 के दिल्ली अधिवेशन में वे काँग्रेस की अध्यक्ष ज़रूर चुनी गई थीं, लेकिन 1960 में ही इस पद पर नीलम संजीव रेड्डी आ गए थे.
1964 में नेहरू की मौत के बाद काँग्रेस ने इंदिरा गाँधी को राज्यसभा भेजा. इस तरह वे पहली बार सांसद नेहरू की मौत के बाद बनीं. राज्यसभा की इस 'गूँगी गुड़िया' को काँग्रेस के दिग्गजों ने प्रधानमंत्री बनाया था, न कि नेहरू ने.
इससे उलट 1950 में सरदार पटेल की मृत्यु के बाद नेहरू उनके बच्चों के लिए लगातार चिंतित रहे. मणिबेन सरदार पटेल के लिए उसी तरह थीं जैसे कि इंदिरा, नेहरू के लिए. 1952 के पहले ही आम चुनाव में नेहरू जी ने उन्हें काँग्रेस का टिकट दिलवाया.
वे दक्षिण कैरा लोकसभा क्षेत्र से सांसद बनीं. 1957 में वे आणंद लोकसभा क्षेत्र से चुनी गईं. 1964 में उन्हें काँग्रेस ने राज्यसभा भेजा. वे 1953 से 1956 के बीच गुजरात प्रदेश काँग्रेस कमेटी की सचिव और 1957 से 1964 के बीच उपाध्यक्ष रहीं.
सरदार पटेल के बेटे को मिला टिकटAMOD KUMAR
इस तरह नेहरू के रहते मणिबेन को काँग्रेस में पूरा मान-सम्मान मिला. यही नहीं, नेहरू के समय ही सरदार पटेल के बेटे डाह्याभाई पटेल को भी लोकसभा का टिकट मिला. वे 1957 और 1962 में लोकसभा के लिए चुने गए और फिर 1973 में अपनी मौत तक राज्यसभा सदस्य रहे.
(यह सहज ही समझा जा सकता है कि काँग्रेस प्रत्याशी बतौर मणिबेन और दाह्याभाई को संघ और जनसंघ के विरोध का सामना करना पड़ा होगा.)
यानी एक समय ऐसा भी था जब सरदार पटेल के बेटे और बेटी, दोनों ही एक साथ लोकसभा और फिर राज्यसभा में थे. भाई-बहन के लिए ऐसा संयोग 'वंशवादी नेहरू' ने ही निर्मित किया था जिन्होंने अपनी बेटी इंदिरा को जीते-जी काँग्रेस का टिकट नहीं मिलने दिया.
कश्मीर के मुद्दे पर भी यह बताने का प्रयास होता है कि अगर पटेल की चलती तो वे बल प्रयोग कर कश्मीर को भारत का हिस्सा बना लेते जबकि नेहरू की 'उदारता' भारी पड़ गई. हक़ीक़त ये है कि संघ के निशाने पर सर्वाधिक रहे अनुच्छेद 370 के मुख्य शिल्पकारों में सरदार पटेल भी थे.
संघ पर पटेल की रायत,GETTY IMAGES
बंबई में एक आमसभा को संबोधित करते हुए 30 अक्टूबर, 1948 को पटेल ने कहा था, ''कई लोग ऐसा मानते हैं कि अगर किसी क्षेत्र में मुसलमानों का बहुमत है तो वह पाकिस्तान का हिस्सा बनना चाहिए. वे इस बात पर आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि हम कश्मीर में क्यों हैं? इस प्रश्न का उत्तर बहुत सीधा सा है.''
''हम कश्मीर में इसलिए हैं क्योंकि कश्मीर के लोग यह चाहते हैं कि हम वहां रहें. जिस क्षण हमें यह अहसास होगा कि कश्मीर के लोग यह नहीं चाहते कि हम उनकी ज़मीन पर रहें, उसके बाद हम एक मिनिट पर वहां नहीं रूकेंगे…हम कश्मीर के लोगों का दिल नहीं तोड़ सकते.'' (द हिन्दुस्तान टाईम्स, 31 अक्टूबर, 1948)
गाँधी जी की हत्या के बाद आरएसएस 4 फरवरी 1948 को गैरकानूनी घोषित हुआ और 11 जुलाई 1949 को यह प्रतिबंध हटा. प्रचार किया जाता है कि यह प्रतिबंध नेहरू के दबाव की वजह से लगाया गया था और पटेल ने इसे हटवा दिया था.
सच्चाई यह है कि नेहरू की तरह सरदार पटेल भी संघ की गतिविधियों को ख़तरनाक मानते थे. वे काफ़ी आहत थे कि गाँधी की हत्या के बाद संघ के लोगों ने मिठाई बाँटी और देश के वातावरण को इस कदर विषाक्त किया कि गाँधी की हत्या मुमकिन हुई. वे यह भी जानते थे कि संघ की गतिविधियाँ लगातार जारी हैं.
पटेल ने क्या किया था?त,HULTON ARCHIVES
सरदार पटेल संघ को स्थायी रूप से 'नियंत्रित' करने का उपाय करना चाहते थे. 1925 में गठित हुए आरएसएस का उस समय न कोई संविधान था और न सदस्यता रसीद ही होती थी. प्रतिबंध हटाने से पहले पटेल ने इसकी व्यवस्था सुनिश्चि कराई.
11 जुलाई 1949 प्रतिबंध हटाने का एलान करने वाली भारत सरकार की विज्ञप्ति में कहा गया, "आरएसएस के नेता ने आश्वासन दिया है कि आरएसएस के संविधान में, भारत के संविधान और राष्ट्रध्वज के प्रति निष्ठा को और सुस्पष्ट कर दिया जाएगा.''
''यह भी स्पष्ट कर दिया जाएगा कि हिंसा करने या हिंसा में विश्वास करने वाला या गुप्त तरीकों से काम करने वाले लोगों को संघ में नहीं रखा जाएगा. आरएसएस के नेता ने यह भी स्पष्ट किया है कि संविधान जनवादी तरीके से तैयार किया जाएगा. विशेष रूप से, सरसंघ चालक को व्यवहारत: चुना जाएगा.''
''संघ का कोई सदस्य बिना प्रतिज्ञा तोड़े किसी भी समय संघ छोड़ सकेगा और नाबालिग अपने मां-बाप की आज्ञा से ही संघ में प्रवेश पा सकेंगे. अभिभावक अपने बच्चों को संघ-अधिकारियों के पास लिखित प्रार्थना करने पर संघ से हटा सकेंगे. इस स्पष्टीकरण को देखते हुए भारत सरकार इस निष्कर्ष पर पहुंची है कि आरएसएस को मौका दिया जाना चाहिए।''
पटेल ने मतभेदों से इनकार किया स्रोत,CENTRAL PRESS
इस विज्ञप्ति से साफ है कि संघ पर किस तरह के आरोप थे और भारत सरकार को उसके बारे में कैसी-कैसी सूचनाएं थीं. वह भारतीय तिरंगे तक का सम्मान नहीं करता था. लेकिन प्रतिबंध हटाना शायद लोकतंत्र का तकाज़ा था और इसके सबसे बड़े पैरोकार तो प्रधानमंत्री नेहरू ही थे.
ग़ौरतलब है, पटेल के नाम का जमकर इस्तेमाल करने वाले आरएसएस ने उनकी मौत के बाद उनसे किए गए वादे को कोई तवज्जो नहीं दी. राजनीति में उसने इस क़दर भाग लिया कि तमाम प्रदेशों के मुख्यमंत्री से लेकर भारत का प्रधानमंत्री कौन बनेगा, बीजेपी के सत्ता पाने पर वही तय करता है.
पहले जनसंघ और फिर बीजेपी बनाकर उसने साफ़ कर दिया कि राजनीति न करने का उसका वादा महज़ रणनीति थी और उसने ऐसा करके पटेल की आँख में धूल झोंकी थी. सरसंघ चालक का चुनाव आज भी नहीं होता बल्कि उत्तराधिकारी की घोषणा की जाती है.
सरदार पटेल ने अपने जीवित रहते नेहरू के साथ मतभेदों का लगातार खंडन किया था. उन्होंने संसद में खुलकर कहा था, ''मैं सभी राष्ट्रीय मुद्दों पर प्रधानमंत्री के साथ हूं. लगभग एक-चौथाई सदी तक हम दोनों ने हमारे गुरु (गांधी) के चरणों में बैठकर भारत की स्वाधीनता के लिए एक साथ संघर्ष किया. आज जब महात्मा नहीं हैं तब हम आपस में झगड़ने की बात सोच भी नहीं सकते.''
साफ़ है, पटेल को नेहरू की जगह पहला प्रधानमंत्री न बनने पर संघ परिवार के लोग जैसा अफ़सोस जताते हैं, वैसा अफ़सोस पटेल को नहीं था. वे आरएसएस नहीं, गांधी के सपनों का भारत बनाना चाहते थे. यह बात याद रखनी चाहिए कि पटेल ने भारत को 'हिंदू राष्ट्र' बनाने के विचार को खुलेआम 'पागलपन' कहा था जो संघ का घोषित लक्ष्य है.
(ये लेखक के निजी विचार )
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