राजसी हठ का अंत आखिरकार माने हनवंत
राजस्थान के जोधपुर रियासत के राजा हनवंतसिंह।
एक बार स्थिति ऐसी आ गई कि आखिरकार सरदार ने पिस्तौल उठा ली और हनुवंतसिंह की तरफ तानकर कहा कि राजस्थान में विलय पर हस्ताक्षर कीजिए नहीं तो आज हम दो सरदारों में से एक सरदार ही बचेगा। संभव है कि यह वर्णन अतिरेक भरा हो या अगर ऐसा हुआ भी हो तो मामला तल्खी का नहीं बल्कि मजाकिया हो।
आजादी के वक्त राजस्थान में 22 रियासतें थीं, जिनमें केवल अजमेर (मेरवाड़ा) ब्रितानी हुकूमत के कब्जे में था। बाकी की 21 रियासतें स्थानीय शासकों के अधीन थीं। भारत के आजाद होते ही अजमेर रियासत भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 के करारों के मुताबिक खुद-ब-खुद भारत का हिस्सा बन गई। बाकी के 21 रियासतों में से ज्यादातर के राजा स्वतंत्र राज्य बनाने की रट लगाए बैठे थे। इसके लिए उनकी अपनी दलील भी थी। वे कहते थे कि आजादी के लिए उन्होंने संघर्ष किया है। उन्हें राजकाज चलाने का बेहतर तजुर्बा भी है। लिहाजा उनके राज्यों को स्वतंत्र राज्य के तौर पर भारत में शामिल किया जाए।
18 मार्च, 1948 को तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल और उनके सचिव वीपी मेनन ने एकीकृत राजस्थान के लिए अलग-अलग राजाओं को भारत में शामिल होने की प्रक्रिया के लिए राजी करने की कोशिश शुरू की और इस तरह काफी प्रयास के बाद नवंबर 1956 में मौजूदा राजस्थान बना। रियासतों की इस विलय प्रक्रिया में सबसे ज्यादा मुश्किल आई जोधपुर रियासत के राजा हनवंतसिंह को मनाने में। मोहम्मद अली जिन्ना जोधपुर (मारवाड़) को भी पाकिस्तान में मिलाना चाहता थे, वहीं जोधपुर के शासक हनवंत सिंह भी अपनी कांग्रेस विरोधी मानसिकता और स्वतंत्र राजकीय हैसियत की हसरत में पाकिस्तान में शामिल होना चाहते थे।
अगस्त 1947 में हनवंतसिंह धौलपुर के महाराजा तथा भोपाल के नवाब की मदद से जिन्ना से मिले। हनवंतसिंह की जिन्ना से बंदरगाह की सुविधा, रेलवे का अधिकार, अनाज तथा शस्त्रों के आयात आदि मसलों पर बातचीत हुई। जिन्ना ने उनकी हर तरह की शर्त को मानने का भरोसा दिलाया। भोपाल के नवाब के प्रभाव में आकर हनवंत सिंह ने उदयपुर के महाराणा से भी पाकिस्तान में सम्मिलित होने का आग्रह किया। लेकिन उदयपुर ने इस प्रस्ताव को यह कहते हुए ठुकरा दिया कि एक हिंदू शासक हिंदू रियासत के साथ मुसलमानों के देश में शामिल नहीं होगा।
इस दौरान पाकिस्तान में मिलने के मुद्दे पर जोधपुर का माहौल तनावपूर्ण हो चुका था। सरदार पटेल किसी भी कीमत पर जोधपुर को पाकिस्तान के हाथों में नहीं जाने देना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने जोधपुर के महाराज को भरोसा दिलाया कि भारत में उन्हें वे सभी सुविधाएं दी जाएंगी जिनकी मांग पाकिस्तान से की गई थी। हालांकि तब मारवाड़ के कुछ जागीरदार भारत में विलय के विरोधी भी थे। वे मारवाड़ को एक स्वतंत्र राज्य के रूप में देखना चाहते थे लेकिन महाराजा हनवंतसिंह ने समय की नब्ज पहचानते हुए भारत-संघ के विलयपत्र पर एक अगस्त, 1949 को हस्ताक्षर कर दिए। जोधपुर रियासत के भारतीय संघ में विलय को लेकर कई तरह की दिलचस्प बातें तारीख के पन्नों से बाहर आज भी लोगों की बातचीत का हिस्सा हैं।
इसमें सबसे मशहूर है उस मुलाकात की बात जिसमें एक तरफ सरदार पटेल और उनके सचिव मेनन थे तो दूसरी तरफ हनवंतसिंह। बताते हैं कि एक ऐसी स्थिति में जब हनवंतसिंह तकरीबन जिन्ना के कहे में आ चुके थे सरदार पटेल ने उनसे सीधे मिलने का फैसला किया। इससे पहले वे जूनागढ़ के राजा को समझा रहे थे। हनवंतसिंह के इरादे के बारे में जानकर वे तत्काल हेलिकॉप्टर से जोधपुर को रवाना हुए। रास्ते में सिरोही-आबू के पास उनका हेलिकॉप्टर खराब हो गया, तो स्थानीय साधनों से सफर करते हुए तत्काल जोधपुर पहुंचे।
हनुवंतसिंह सरदार को उम्मेद भवन में देख भौंचक्क रह गए। इस बात का कोई ठोस प्रमाण तो नहीं पर कहते हैं कि जब बात मेज तक पहुंची तो हनुवंत सिंह ने सरदार को धमकाने के उद्देश्य से मेज पर ब्रिटिश पिस्तौल रख दी। इस बीच सरदार हनवंत सिंह को काफी समझाते रहे।
एक बार स्थिति ऐसी आ गई कि आखिरकार सरदार ने पिस्तौल उठा ली और हनुवंतसिंह की तरफ तानकर कहा कि राजस्थान में विलय पर हस्ताक्षर कीजिए नहीं तो आज हम दो सरदारों में से एक सरदार ही बचेगा। संभव है कि यह वर्णन अतिरेक भरा हो या अगर ऐसा हुआ भी हो तो मामला तल्खी का नहीं बल्कि मजाकिया हो। पर एक बात तो फिर भी कही जा सकती है कि उस दौरान का घटनाक्रम भारतीय परिसंघ में देसी राज्यों के विलय के लिहाज से स्वाधीन भारत का सबसे चुनौतीपूर्ण कार्य था और इसे सरदार पटेल ने काफी सूझबूझ के साथ हल किया