शिवाजी महाराज की युद्ध नीति से अमेरिका को हराया था एक छोटे से देश ने
भारत भले ही अपने भूतकाल के गौरव को समझने और समझाने में असमर्थ रहा हो, लेकिन विदेशों में जब प्राचीन भारत के अनुभवों का उपयोग कर वहां के शासक और जनता कोई चमत्कार करने में सफल हो जाते हैं, तब भारत के शासनकर्ता और यहां के बुद्धिजीवी अपना सर धुनने लगते हैं।
शून्य की खोज हो या चरक, सुसरत अथवा तो धनवंतरी का औषधि विज्ञान सभी क्षेत्रों में प्राचीन भारत को दुनिया महिमा मंडित करती हुई दिखलाई पड़ती है। भारतीय युद्ध कला एक ऐसा क्षेत्र है, जिस पर विदेशों में निरंतर चर्चा होती रहती है। क्या कभी हमने इस मुद्दे पर चिंतन किया कि छत्रपति शिवाजी महाराज औरंगजेब जैसे शक्तिशाली सम्राट को पराजित करने में क्यों सफल हुए?
भारतीय इतिहासकार और हमारी सेना के अधिकारी तो इस बात पर चिंतन नहीं कर सके, लेकिन भारत से थोड़ी दूर पर ही बसे एक पड़ोसी देश वियतनाम ने भारत के शूर वीरों के इतिहास का अध्ययन कर अपनी ऐसी रणनीति बनाई कि अमरीका जैसी महाशक्ति भी दुम दबाकर भाग खड़ी हुई।
इसका विश्लेषण कोई भारतीय करता तो इसे अपने मुंह मियां मिट्ठू की मनघड़ंत कहानी कही जा सकती थी, लेकिन जब स्वयं वियतनाम के प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री ने इस रहस्य को उजागर किया तो दुनिया हतप्रभ रह गई। यद्यपि इस घटना को घटित हुए लंबा समय निकल गया, लेकिन वियतनाम के नेताओं को जब अवसर मिला तो वे यह कहानी दोहराने से नहीं चूके।
वियतनामी नेताओं का कहना था कि यदि उन्होंने भारतीय इतिहास के नायक छत्रपति शिवाजी के जीवन का अध्ययन नहीं किया होता तो अमरीका जैसा अजगर हमें निगल ही गया होता। भारत के सेन्य निष्णांतों अथवा राजनीतिक नेताओं ने तो इस रहस्यमयी घटना का उल्लेख नहीं किया, लेकिन स्वयं वियतनाम के वरिष्ठ राजनीतिज्ञों ने इस सत्यकथा को उजागर कर सारी दुनिया को आश्चर्यचकित कर दिया।
जाने माने बुद्धिजीवी अशोक चोगुले ने इस तथ्य को उजागर कर सारे देश को चौंका दिया है। चौगुले किसी समय अंग्रेजी विवेक से भी जुड़े रहे हैं। इन दिनों वे गोवा में रहकर अपने लेखन से भारतीय साहित्य के अनेक गुमशुदा पृष्ठों की खोज में तल्लीन है।
आश्चर्यजनक बात तो यह है कि भारत सरकार के साथ-साथ देश के अन्य बुद्धिजीवी भी इस खोज से अनभिज्ञ रहे हैं। भारतीय इतिहास का यह एक ऐसा सुनहरा पृष्ठ है, जिसकी चर्चा सर्वत्र होना अनिवार्य है। महाराष्ट्र के नागरिक इस मामले में जितना गर्व करें, उतना ही कम है। इस संबंध में मराठी भाषा में लिखे आलेख को हमें यहां उद्धरित कर रहे हैं।
दुख की बात तो यह है कि भूतकाल की केन्द्र सरकारों ने तो इस घटना की चर्चा नहीं की, लेकिन महाराष्ट्र में भी इस पर ध्यान नहीं दिया गया। चौंका देने वाली बात यह है कि उक्त घटना उस अवसर से जुड़ी हुई है, जब वियतनाम जैसे छोटे से देश ने अमेरिका जैसे शक्तिशाली राष्ट्र को अपने चरणों में झुकने के लिए मजबूर कर दिया।
लगभग आज से 20 वर्ष पूर्व अमरीका को वियतनाम ने न केवल हार स्वीकार करने पर मजबूर किया, बल्कि उसे यह भी पाठ पढ़ा दिया कि वाशिंगटन जैसी महाशक्ति किसी देश को छोटा और कमजोर समझ कर उसे पराजित करने की भूल न करे। अमरीका के जीवन में वियतनाम की हार एक ऐसी घटना थी, जो आज भी उसे शर्मिंदा करती रहती है।
निरंतर बीस वर्ष की लंबी अवधि तक अमरीका एक छोटे और कमजोर देश को पराजित करने के सपने संजोता रहा। आधुनिक हथियारों से लगाकर अपने सबल और सक्षम सैनिक उसने झोंक दिए। कूटनीति के मोर्चे पर उसे डराता भी रहा और लालच भी देता रहा, लेकिन वियतनाम को केवल अपनी आजादी प्यारी थी। न वह झुका और न वह मिटा, बल्कि अमरीका को ईंट का जवाब पत्थर से देता रहा।
अपने जीवन में अनेक लड़ाई लडऩे वाला यह आधुनिक देश एक दिन इस छोटे और कमजोर राष्ट्र के सामने दुम दबाकर भाग खड़ा हुआ। अमरीका ने फिर कभी भविष्य में वियतनाम की ओर नापाक आंखों से देखने का साहस नहीं कर सका।
वियतनाम के नेता तो अपनी इस विजय के लिए छत्रपति शिवाजी महाराज का आभार व्यक्त कर उनका सम्मान इस तरह से करते रहे, मानों यह उनकी माटी में पैदा होने वाला कोई लाड़ला है, लेकिन दु:ख और शोकांतिका की बात तो यह है कि तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने भी इस विजय के संबंध में कभी एक शब्द भी अपने मुंह से नहीं बोला और शिवाजी महाराज को अपनी आदरांजलि अर्पित नहीं की, लेकिन सच कब तक छिपा रहता।
जब वियतनामी नेताओं ने इस गाथा को दोहराया तो तत्कालीन भारत सरकार को अपनी इस हरकत पर पछतावा हुआ या नहीं, यह नहीं कहा जा सकता है। इस बात का रहस्योद्घाटन उस समय हुआ, जब वियतनाम के तत्कालीन राष्ट्राध्यक्ष ने अपनी भारत यात्रा के समय इस संबंध में पूछे गए एक प्रश्न के उत्तर में अपनी जीत के कारणों का उल्लेख करते हुए सविस्तार इस घटना को दोहराया।
उनका कहना था कि अमरीका जैसे विशाल और सैनिक ताकत से सुसज्जित राष्ट्र को पराजित करना सरल बात नहीं थी, लेकिन युद्ध किस प्रकार जीता जाए, इसके संबंध में उपलब्ध साहित्य का जब वियतनाम के राष्ट्राध्यक्ष ने इतिहास को खंगालना प्रारंभ किया तो उनके हाथ एक ऐसी पुस्तक लगी, जिसमें एक छोटे से भारतीय राजा ने तत्कालीन भारत के मुगल सम्राट औरंगजेब को चारों कोने चित कर दिया था।
उस राजा के चरित्र और कार्यप्रणाली से मैं इतना प्रभावित हो गया कि मैंने अमेरिका के सम्मुख चल रहे युद्ध की रणनीति ही बदल डाली। छत्रपति शिवाजी औरंगजेब के सामने जिस प्रकार से छिपा युद्ध कर रहे थे, उस नीति को अपना लिया। उनकी भारी भरकम फौजों पर मराठा सैनिकों की टुकडी़ छिपकर हमला बोलती और देखते ही देखते उन्हें मैदान छोड़ देने पर मजबूर कर देती।
मुगल सेना को यह भी पता नहीं लगता कि छिपा हमला किस ओर से होगा और कहां होगा? इस प्रकार गोरिल्ला युद्ध ने मुगलों के छक्के छुड़ा दिए। अब वियतनामी सेना आमने-सामने न लड़ते हुए छिपकर हमला करती और उनकी बटालियनों को साफ कर देती। मराठा गोरिल्ले कहां छिपे हैं? वे कब और कहां से हमला करेंगे, इसका मुगल सेनाओं को आभास भी नहीं होता।
नतीजा यह आया कि इस गोरिल्ला प्रणाली ने मुगलों को मैदान छोड़ देने पर मजबूर कर दिया। इसी शैली में वियतनामी गोरिल्ले अमेरिकन सेना पर गुप्त हमला करते और उन्हें भाग जाने पर मजबूर कर देते थे।
अमेरिकनों को यह भी पता नहीं चलता कि वियतनामी गोरिल्ले कहां है और वे कब और किस बटालियन पर हमला करेंगे? इसलिए हर तरह से सम्पन्न अमरीकन सैनिक भाग खड़े हुए।
कुछ ही दिनों में परिणाम यह आया कि मुट्ठीभर वियतनामी, अमेरिकन फौजों का सफाया करने में सफल होने लगे। अमरीका सरकार और उनके सैनिक निष्णांत बहुत दिनों तक यह सहन नहीं कर सके। अंत में अमरीकन सेना भाग खड़ी हुई और मुट्ठीभर वियतनामी उन पर इतने भारी पड़े की अंतत: युद्ध का फैसला वियतनामी सेना के पक्ष में हो गया।
वियतनाम के कमांडर और राजनीतिक नेताओं का कहना था कि छत्रपति शिवाजी का आदर्श सामने रखकर हमने युद्ध नीति बदल डाली और अमेरिका जैसे दृढ़ सैनिक देश को पराजित कर दिया। यही कारण बना कि छत्रपति शिवाजी हमारे आदर्श बन गए।
आज वियतनाम की जनता छत्रपति के सामने नमन करती है और हर दिन इस बात को दोहराती है कि यदि छत्रपति से हमें प्रेरणा नहीं मिलती तो संभवत: वियतनाम फिर से गुलाम बन जाता। अमेरिका हमें अपना उपनिवेश बना लेता और वियतनाम की जनता का कत्लेआम करने में तनिक भी नहीं हिचकिचाता।
वियतनामी सेना का नेतृत्व करने वाले तत्कालीन राष्ट्रपति का जब निधन हुआ तो उन्होंने इस बात की वसीयत की कि उनकी समाधि पर एक वाक्य लिख दिया जाए, वियतनाम की इस विजय का श्रेय मात्र किसी को जाता है तो वह छत्रपति शिवाजी महाराज को जाता है।
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