एक थे रेणु

"बदलाव के लिए कदम बढाना या हाथ उठाना ही काफ़ी नहीं है। ज्यादा महत्वपूर्ण ये है कि हाथ उठाने और कदम बढाने वाले ने झंडा किस रंग का उठाया है?"......
ये शब्द उस संघर्षवादी लेखक के हैं जिसने नेपाल और भारत दोनों देशों की आजादी के लिए संघर्ष में भाग लिया था।
स्वर्गीय फणीश्वर नाथ रेणु को हिंदी कहानी में देशज समाज की स्थापना का श्रेय प्राप्त है। आंचलिक कथाकार साहित्यकार का वर्णन आने पर फणीश्वर नाथ रेणु का नाम सहज ही हृदय में उभर कर आता है। उनके उपन्यासों और कहानियों के पात्रों की जीवंतता, सरलता, निश्छलता और सहज अनुराग हिंदी कथा साहित्य में संभवतः पहली बार घटित हुआ था। हिंदी कहानी में पहली बार लगा कि शब्दों से सिनेमा की तरह दृश्यों को जीवंत भी किया जा सकता है और संगीत की सृष्टि भी की जा सकती है। रेणु की तुलना कथा सम्राट प्रेमचंद से होती रही है। मेरी समझ से रेणु प्रेमचंद से आगे के कथाकार हैं। प्रेमचंद में गांव का यथार्थ है, रेणु में गांव का संगीत। प्रेमचंद को पढ़ने के बाद हैरानी होती है कि इतनी विपरीत परिस्थितियों में भी किसान अपने गांव, अपने खेत और अपनी मिट्टी से बंधा कैसे रह जाता है। रेणु का कथा-संसार यह रहस्य खोलता है कि जीवन से मरण तक गांव के घरों से उठते संगीत और मानवीय संवेदनाओं की वह नाज़ुक डोर है जो लोगों में अपनी मिट्टी और रिश्तों के प्रति असीम राग पैदा करती है। इनकी कथाओं और उपन्यासों में आंचलिक परिवेश का समावेश मिलता है।
फणीश्वर नाथ रेणु का जन्म अररिया (बिहार) जिले के औराही-हिंगना गांव में 4 मार्च 1921 को जन्म हुआ था।। 1942 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय से परीक्षा पास करने के बाद स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया। अररिया एक तरफ नेपाल और बांग्लादेश की सीमाओं से लगता है तो इसका दूसरा सिरा मिथिलांचल को छूता है। रेणु जी की रचनाओं में यही अंचल अपने पूरे परिवेश के साथ रचता बसता है।
1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के बाद 1950 के दौर में जब नेपाल में उनके मित्र और बनारस में उनके सहपाठी रहे कोइराला बंधुओं ने नेपाल में क्रांति के लिए रेणु से रिक्वेस्ट किया तब अपने मित्र कोइराला बंधुओं के आग्रह पर फणीश्वर नाथ रेणु नेपाल में भी सशस्त्र क्रांति करने चले गए थे और यह दुर्लभ फोटो उसी नेपाल क्रांति की है।
जिस समय हिंदी लेखन में व्याकरण व भाषा का महत्व था उसी दौरान इन्होंने हिंदी लेखन में आंचलिक कथा की शुरुआत की। आंचलिक जीवन का चित्रण के साथ-साथ पात्रों का भी मनोवैज्ञानिक चित्रण किया। लोक संस्कृति को विविध महत्व देते हुए कहानी लिखी। उन्होंने अपनी रचनाओं में ग्रामीण जीवन का गहन चित्र खींचा है। मुंशी प्रेमचंद जी के गोदान के बाद फणीश्वर नाथ रेणु जी की "मैला आंचल" को महत्वपूर्ण हिंदी उपन्यास माना जाता है। फणीश्वर नाथ रेणु द्वारा लिखित रचनाओं में मैला आंचल, परती परिकथा (उपन्यास ),संवादिया ठुमकी ;आदिम रात्रि की महक( कहानी), ऋणजल प्रमुख हैं।
फणीश्वर नाथ रेणु जी की भाषा सरल ,सहज ,रस प्रिय है। ग्रामीण परिवेश व ग्रामीण अनुभवों का सरल चित्रण इनकी कथाओं की विशेषता रही है। फणीश्वर नाथ जी साहित्यकार होने के साथ-साथ समाज के प्रति भी उत्तरदायी रहे। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में एक भारतीय सेनानी के रूप में भाग लिया और स्वतंत्रता हेतु प्रयासरत रहे। रेणू जी की नेपाल की सशस्त्र क्रांति व राजनीति में सक्रिय भागीदारी रही। रेणु जी 1975 में लगे आपातकाल के खिलाफ भी मैदान में उतर पडे।
उनके मशहूर उपन्यास 'मारे गए गुलफाम' पर मशहूर फिल्म 'तीसरी कसम' बनी जो बेहद मकबूल हुई मगर शैलेंद्र और रेणु दोनों को इस फिल्म ने बहुत बुरे दिन दिखाए। राजकपूर चाहते थे कि रेणु कहानी के आखिरी हिस्से को सुखांत बनाए मगर रेणु के भीतर बसने वाले साहित्यकार की जिद के चलते रेणु जी इसके लिए तैयार नहीं हुए। नतीजा ये हुआ कि राजकपूर ने उनको आर्थिक मदद देने से इंकार कर दिया।
भारत सरकार ने उन्हें पद्म विभूषण देने की घोषणा की मगर रेणुजी ने शर्त रखी कि जबतक जेपी को जेल से रिहा नहीं किया जाऐगा, वे उक्त सम्मान ग्रहण नहीं करेंगे। लेकिन जब जेपी जेल से रिहा हुए, तबतक रेणुजी अपनी मुफलिस-बीमार जिंदगी की कैद से हमेशा के लिए रिहा हो चुके थे। फणीश्वर नाथ रेणु सन 1977 में पंचतत्व में विलीन हो गए।
रेणु को पहले आंचलिक उपान्यास 'मैला आंचल' के लिए ही उन्हें २१ अप्रैल, १९७० को तत्कालीन राष्ट्रपति वाराह वेंकट गिरि ने पद्मश्री अवार्ड से सम्मानित किया था और उन पर डाक टिकट भी ज़ारी किया गया है। फणीश्वरनाथ रेणु को हिंदी साहित्य में एक आँचलिक युग की स्थापना का श्रेय दिया जाता है।
फणीश्वरनाथ रेणु का लेखन भारतीय साहित्य में एक अमूल्य धरोहर के रूप में देखा जाता है। उनके उपन्यास और कहानियाँ आज भी भारतीय समाज की समस्याओं और वास्तविकताओं को स्पष्ट रूप से चित्रित करती हैं। वे एक ऐसे लेखक थे जिन्होंने साहित्य के माध्यम से समाज को जागरूक किया और उसे बेहतर बनाने का प्रयास किया। उनका योगदान आज भी हिंदी साहित्य के अध्ययन और समझ में महत्वपूर्ण है। उनकी कृतियाँ आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेंगी।
फणीश्वरनाथ रेणु का साहित्य एक प्रेरणा है, जो हमें अपने समाज की सच्चाई से रूबरू कराता है और सामाजिक बदलाव की दिशा में सोचने के लिए मजबूर करता है। उनकी विशिष्ट भाषा-शैली ने हिंदी कथा-साहित्य को एक नया आयाम प्रदान किया।
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