सरदार पटेल की राजनीति पर किसका दावा?

इतिहास से स्पष्ट है कि सरदार पटेल और जवाहर लाल नेहरू, दोनों ही कांग्रेस के सदस्य थे, शुरू से अंत तक. दोनों ने मिलकर कांग्रेस पार्टी को मज़बूत करने में अपना योगदान दिया.
लेकिन ये भी सही है कि कांग्रेस का रूप उसके बाद बदल गया है. ऐसे में हर एक पार्टी को हक है कि पिछले पचास-सौ साल में हुए नेताओं से अगर वो प्रेरणा लेना चाहती है तो जरूर ले सकती है.
लेकिन अब उनकी विरासत को राजनीतिक बना दिया गया है जो सही नहीं है. सरदार पटेल तो पूरे देश के थे.
पटेल के राजनीतिकरण की एक वजह शायद ये भी है कि उन्हें लेकर जितना अध्ययन होना चाहिए था, उतना नहीं हुआ. जिस तरह से भारतीय जनता पार्टी में सरदार पटेल को अपनाने के लिए होड़ मची है, उसे लेकर दुख ही होता है.
सरदार पटेल को लेकर विवाद करना या उनके जरिए किसी सरकार की आलोचना करना बिल्कुल सही नहीं है. सरदार पटेल को इस तरह इस्तेमाल किया जाना बहुत ही खेद की बात है. लेकिन ऐसा हो रहा है.
ये सरदार पटेल ही थे जिन्होंने 1947 से 1950 के बीच सैकड़ों राजा और नवाबों की रियासतों को भारत में मिलाकर एक विशाल देश खड़ा किया.
आरएसएस पर प्रतिबंध
गांधीजी की हत्या के बाद सरदार पटेल ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगाया था. इसके बाद गोलवलकर उनसे मिले और उन्हें कई आश्वासन दिए. तब जाकर सरदार पटेल ने ये प्रतिबंध हटाया.
प्रतिबंध को हटाने की शर्तें कुछ इस तरह थी कि आरएसएस राजनीति में बिल्कुल हिस्सा नहीं लेगा और पूरी तरह सांस्कृतिक संगठन होगा. साथ ही उसका एक लोकतांत्रिक संविधान होगा.
इन्हीं शर्तों पर प्रतिबंध हटाया गया और कई लोगों को रिहा कर दिया गया. फिर जवाहर लाल नेहरू ने भी इसे मंज़ूरी दी. लेकिन आरएसएस पर प्रतिबंध सरदार पटेल ने ही लगाया था.
अब वही आरएसएस उन्हें अपना नायक करार देने की होड़ में शामिल है. लेकिन जो लोग पढ़ेंगे और अध्ययन करेंगे, उन्हें पता चलेगा कि सरदार पटेल किस तरह के आदमी थे और वे क्या चाहते थे.
कई लोग इस बात को नहीं जानते हैं कि जब 1946-47 में दंगे हो रहे थे, तब बिहार में कुछ हिंदू चरमपंथियों ने कई लोगों को मारने की कोशिश की और सरदार पटेल भी उनकी सूची में थे. तो वह इसके शिकार हो सकते थे.
मतभेद रहे, पर विरोधाभास नहीं
नेहरू से बेशक पटेल के मतभेद थे लेकिन उन्होंने नेहरू जी के नेतृत्व को स्वीकार किया. उन्होंने कहा कि गांधी जी ने ये माना था कि नेहरू उनके उत्तराधिकारी बनेंगे और नवंबर 1948 में सरदार पटेल ने कहा कि गांधी जी का ये विचार बिल्कुल सही था.
ये बात ग़लत है कि जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल के बीच बहुत विरोधाभास थे. उन दोनों की शख्सियतें अलग थीं, तेवर अलग थे, कई मुद्दों पर उनके विचार अलग थे लेकिन सबसे बड़ी बात ये है कि उन्होंने मिलकर बड़ी अच्छी तरह काम किया.
1947 से लेकर दिसंबर 1950 में सरदार पटेल के निधन तक, दोनों नेता साथ रहे और कंधे से कंधा मिला कर काम किया. ये सही है कि उनके बीच बहुत सारे मतभेद भी थे. दोनों के बीच होने वाली बातचीत और पत्रों में कई बार तो बहुत कड़े शब्दों का इस्तेमाल होता था लेकिन उनका टीमवर्क कभी नहीं टूटा.
एक बार जब जवाहर लाल नेहरू ने कहा, "मैं जाता हूं, आप बन जाइए प्रधानमंत्री." तो इस पर सरदार पटेल ने कहा, "नहीं-नहीं. आपको ही रहना होगा."
इन दोनों ने कई साल जेल में बिताए और गांधीजी के साथ उन्होंने काम किया. जब गांधीजी गए, तो उससे कुछ ही मिनट पहले इन दोनों नेताओं ने गांधीजी के सामने एक दूसरे से वादा किया कि ‘हम दोनों साथ ही रहेंगे.’ इस वादे को दोनों नेताओं ने निभाया.
दरअसल दोनों बहुत ही मज़बूत व्यक्तित्व थे. बेशक उनके बीच कुछ मतभेद थे. लेकिन ख़ूबी की बात है कि वो एक साथ टिके रहे.
मुस्लिम विरोधी नहीं
यह जरूर कह सकते हैं कि जिस तरह जवाहर लाल नेहरू की दोस्ती कई मुसलमानों से हुई, उनके सामाजिक जीवन में कई मुसलमान उनके साथ जुड़े, वैसा पटेल के साथ देखने को नहीं मिलता है.
इसलिए उन्हें मुस्लिम तौर तरीकों की वैसी जानकारी नहीं थी जैसी नेहरू को थी. यह भी कहा जा सकता है कि उनका दिल हिंदू था और जब मुस्लिम लीग और मोहम्मद अली जिन्ना की तरफ से पाकिस्तान की मांग उठी तो सरदार पटेल ने उसका बहुत विरोध किया.
जिस तरह पटेल इस बारे में अपना विरोध जताते थे, उससे लग सकता है कि वह मुसलमान विरोधी थे लेकिन ये विचार ग़लत है.
बस उनका दिल हिंदू था लेकिन जिस हाथ से वह सरकार का काम करते थे, वो बिल्कुल निष्पक्ष था. वह कानून के मुताबिक काम करते थे. किसी तरह के पूर्वाग्रह को वह कभी अपने रास्ते में नहीं आने देते थे.
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