छत्रपति सांभाजी ने क्या शिवाजी की पत्नी सोयराबाई की हत्या की थी?

हाल में प्रकाशित एक पुस्तक में दावा किया गया है कि छत्रपति शिवाजी की पत्नी सोयराबाई की हत्या उनके बड़े बेटे सांभाजी महाराज ने की थी.
इसको लेकर महाराष्ट्र की राजनीति गर्मा गई है और इसने एक बार फिर से मराठाओं को नाराज़ कर दिया है.
मराठी दैनिक अख़बार के संपादक गिरीश कुबेर ने अंग्रेज़ी में लिखी अपनी किताब 'रेनेसा स्टेट- द अनरिटन स्टोरी ऑफ़ मेकिंग ऑफ़ महाराष्ट्र' में ऐसा दावा किया है.
उन्होंने महाराष्ट्र के इतिहास की बात करते हुए छत्रपति शिवाजी महाराज की मृत्यु के बाद क्या क्या हुआ है इसका ज़िक्र किया है.
उन्होंने लिखा है, "आख़िर में सांभाजी महाराज ने सोयराबाई और उनके वफ़ादार लोगों की हत्या की ताकि उत्तराधिकार से जुड़े विवाद को ख़त्म किया जाए.''
''इसमें शिवाजी के अष्ट प्रधान मंडल के कुछ सदस्य थे. इस ख़ून-ख़राबे के चलते शिवाजी का साम्राज्य बिखर गया. सांभाजी को इसकी बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ी."
बीजेपी ने इस पुस्तक पर पाबंदी लगाने की मांग की है. बीजेपी का आरोप है कि इसमें छत्रपति सांभाजी के ख़िलाफ़ भद्दी बातें लिखी गई हैं. वहीं नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी के अमोल कोल्हे ने किताब से इस हिस्से को हटाने की मांग की है.
कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष नाना पटोले ने कहा है कि गिरीश कुबेर को माफ़ी मांगनी चाहिए. वहीं सांभाजी ब्रिगेड और अन्य मराठा संस्थानों ने इस पर आक्रामक प्रतिक्रियाएं दी हैं.
लेकिन इन मामले ने एक बार फिर से उस मुद्दे को जीवंत बना दिया है, जिसको लेकर बात होती रही है. सांभाजी महाराज और सोयराबाई के आपस में कैसे रिश्ते थे?
शिवाजी महाराज की मृत्यु के बाद रायगढ़ में क्या कुछ हुआ? क्या सोयराबाई ने सांभाजी महाराज के ख़िलाफ़ षड्यंत्र किया था? इतिहास में इसको लेकर क्या साक्ष्य मौजूद हैं? इन मुद्दों पर इतिहासकारों का क्या कहना है? इस मामले पर गिरीश कुबेर का क्या कहना है? हमने इन्हीं सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश की है.
पटरानी सोयराबाई बनाम युवराज सांभाजी
सोयराबाई को शिवाजी महाराज की पटरानी का सम्मान मिला हुआ था, वह मोहिते परिवार से थीं. शाहाजी राजे की सेना में धाराजी मोहिते और सांभाजी मोहिते वीर योद्धा थे.
सोयराबाई सांभाजी मोहिते की बेटी थीं. उनकी शादी शिवाजी महाराज से किस निश्चित तारीख़ को हुई थी, इसके बारे में कोई विश्वसनीय जानकारी उपलब्ध नहीं है. इनके दो बच्चे हुए- दीपाबाई और राजाराम.
सोयराबाई को रायगढ़ में छह जून, 1674 को हुए एक सम्मान समारोह में पटरानी का सम्मान दिया गया. सोयराबाई के अलावा उस वक़्त शिवाजी महाराज की तीन पत्नी जीवित थीं. जब सांभाजी दो साल के थे, तब उनकी माँ साईबाई का निधन हो गया था.
सोयराबाई को जिस समारोह में पटरानी का सम्मान मिला था, उसी समारोह में सांभाजी को युवराज का ख़िताब मिला. सांभाजी शिवाजी महाराज के उत्ताराधिकारी होंगे, ये सोच कर अंग्रेजों ने सांभाजी को उपहार भी दिया था. इतिहास के शोधकर्ता डॉ. कमल गोखले के मुताबिक ब्रिटिश दस्तावेज़ों में राजाराम को कोई उपहार देने की बात नहीं दिखती है.
महाराष्ट्र के कई इतिहासकारों ने सोयराबाई और उनके सौतले बेटे सांभाजी महाराज पर शोध किया है. जब यह आयोजन किया गया था कि तब सोयराबाई के बेटे राजाराम महज़ चार साल के थे.
डॉ. कमल गोखले ने लिखा है, "हो सकता है कि सांभाजी जितनी प्रतिष्ठा अपने बेटे को नहीं मिलने पर सोयराबाई उदास हो गई हों. यह मानवीय स्वभाव है."
सांभाजी के उत्तराधिकारी घोषित होने के बाद शिवाजी के भोसले परिवार में कलह शुरू हो गई. कहा जाता है कि यह कलह शिवाजी महाराज, सोयराबाई और सांभाजी के बीच थी. इसका संदर्भ शिवदिग्विजय नामक दस्तावेज़ में दिया गया है.
इन दस्तावेज़ों के मुताबिक़ सोयराबाई इस बात पर ज़ोर दे रही थीं कि राजाराम को उत्तराधिकारी बनाया जाए. मराठा इतिहासकार वीके राजवाडे के मुताबिक़ शिवदिग्विजय 1810 में बड़ौदा में प्रकाशित हुई थी.
इन दस्तावेज़ों में शिवाजी महाराज के सोयराबाई से एक मुलाक़ात का ज़िक्र है जहाँ सोयराबाई शिवाजी महाराज से अपने बेटे राजाराम को उत्तराधिकारी बनाने की बात कहती हैं. हालांकि दस्तावेज़ में आगे यह भी लिखा है कि शिवाजी महाराज को सोयराबाई पर पूरा भरोसा नहीं था.
भाखर कहे जाने वाले इन दस्तावेज़ों को उस दौर का रोज़नामचा कह सकते हैं जिससे मराठा इतिहास की काफ़ी जानकारी मिलती है लेकिन ज़्यादातर यह अतिरेक भरी और एकपक्षीय जानकारी है, इसलिए इन्हें विश्वसनीय नहीं माना जाता है.
डॉ. जयसिंहराव पवार ने लिखा है, "रायगढ़ में उस वक्त स्थिति तनावपूर्ण हो गई थी और इसकी वजह रानी सोयराबाई और उनके सिपहसलार थे."
दरअसल, उस वक्त सांभाजी महाराज को रायगढ़ से दूर तैनात थे, इसी वजह से सोयराबाई का राजधानी में काफ़ी असर था.
डॉ. जयसिंहराव पवार ने छत्रपति सांभाजी- एक चिकित्सा में लिखा है, "सांभाजी उत्तराधिकारी बनाए जाने के बाद करीब दो साल और तीन यानी अक्टूबर 1676 तक रायगढ़ रहे. 1678 में शिवाजी महाराज ने सांभाजी महाराज के साथ कर्नाटक पर हमला किया. इसके बाद वे शिवाजी महाराज की मृत्यु तक रायगढ़ में नहीं थे. हालांकि शिवाजी महाराज रायगढ़ में ही रहा करते थे लेकिन सांभाजी साढ़े तीन साल तक रायगढ़ नहीं लौटे. इतने लंबे समय में सोयराबाई और उनके सहयोगियों का असर राज्य की राजनीति में काफ़ी बढ़ गया था."
सांभाजी के जीवन पर कविता की एक किताब है अनुपूराण. इतिहासकारों के मुताबिक़ इसमें सांभाजी महाराज का पक्ष लिया गया था और यह रचना कवि परमानंद के बेटे देवदत्त की है.
अनुपूराण में एक नाटकीय घटनाक्रम का ज़िक्र है. इसमें शिवाजी महाराज और सांभाजी के बीच राज्य के बंटवारे पर एक बातचीत है. शिवाजी महाराज इसके मुताबिक सांभाजी से कहते हैं, "मेरे लिए अब अपने राज्य की रक्षा कर पाना मुश्किल होता जा रहा है, मैं तुम्हें यह साम्राज्य सौंपना चाहता हूं. साम्राज्य का कोई भी हिस्सा तुम्हारे सौतले भाई को नहीं मिलेगा. उसके लिए मैं नया राज्य जीतूंगा. राजाराम युवा है, वह अभी राज्य चलाने की स्थिति में भी नहीं है. तुम में शानदार गुण है. मैं इसे तुम्हें सौंपने के तैयार हूँ. जैसे शरीर का विभाजन नहीं हो सकता है वैसे ही साम्राज्य का विभाजन भी नहीं हो सकता. जब तक मैं दूसरा राज्य नहीं जीत लेता था तब तक तुम श्रीनगरपुर में रहे, तुन्हें रायगढ़ में सोयराबाई के साथ नहीं रहना है."
सांभाजी उनसे कहते हैं, "हमारी नियति ही हमारे सुख और दुख की वजह है. आपके बिना मेरा मन आनंदित नहीं रहेगा. आप यहीं रहिए. आप ही साम्राट रहिए. विभाजन की बात भी ग़लत है. मैं विभाजित राज्य नहीं लूंगा."
इतिहासकारों के मुताबिक भी 1675-76 में रायगढ़ के विभाजन के प्रस्ताव पर चर्चा हुई थी. शिवाजी महाराज के अष्ट प्रधान मंडल के कुछ सदस्य युवराज सांभाजी के पक्ष में नहीं थे. इसलिए उनमें भी आपस में विवाद था.
इतिहासकारों का छत्रपति शिवाजी के व्यक्तित्व को लेकर दो नज़रिया है. कुछ इतिहासकारों के मुताबिक सांभाजी काफी सोचने समझने वाले, कूटनीतिक और दूरदर्शी थे. हालांकि कुछ ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में उन्हें गैर ज़िम्मेदार, गैर भरोसेमंद और विचारहीन तक बताया गया है. महाराष्ट्र में पिछली साढ़े तीन शताब्दियों से इस बात पर चर्चा चलती रही कि इनमें से कौन से सांभाजी वास्तव में थे और किन ऐतिहासिक दस्तावेज़ों पर भरोसा किया जाए.
डॉ. जयसिंहराव पवार कहते हैं, "रायगढ़ में कलह की स्थिति सांभाजी राजा के व्यवहार के चलते उत्पन्न नहीं हुई थी, बल्कि यह रानी सोयराबाई और प्रधानमंडल में शामिल उनके सहयोगियों की महत्वाकांक्षा के चलते हुई थी. रायगढ़ में सांभाजी के विरोध का माहौल था, उसको लेकर सोयराबाई ने अपने सहयोगियों के साथ षड्यंत्र शुरू कर दिया. सांभाजी को बुरा बताने की कोशिश भी उस षड्यंत्र का हिस्सा थीं."
शिवाजी महाराज का उत्तराधिकारी कौन बना?
उसी दौर में सांभाजी ने मुगलों के गुट के दिलेर ख़ान से हाथ मिला लिया. कुछ इतिहासकारों के मुताबिक इसकी वजह से रायगढ़ में गृहयुद्ध छिड़ गया जबकि अन्य इतिहासकारों के मुताबिक सांभाजी मुगलों से बातचीत के नाकाम रहने के बाद वापस अपने राज्य लौट आए थे.
डॉ. कमल गोखले ने लिखा है, "सांभाजी राजा मुगलों से जब 1678 में मिले, इससे अष्ट प्रधान मंडल में उनको लेकर अविश्वास बढ़ा और कटुता बढ़ी. ऐसी स्थिति में शिवाजी महाराज के लिए उत्तराधिकारी को लेकर निश्चित फ़ैसला कर पाना मुश्किल हो गया था."
ऐसे मराठा दस्तावेज़ मौजूद हैं जिसमें दावा किया गया है कि शिवाजी महाराज ने निधन से अपने प्रधान पंत को खत लिखा था, इसमें उन्होंने संभाजी से ज़्यादा राजराम को तरजीह दी थी. 1697 में लिखे दस्तावेज़ों के मुताबिक सांभाजी राजा के लिए कटु शब्दों का इस्तेमाल किया गया था जबकि राजाराम की प्रशंसा की गई थी.
राजाराम की शादी और शिवाजी महाराज की मृत्यु
15 मार्च, 1680 को सोयराबाई के बेटे राजाराम की शादी हुई. उस वक्त राजाराम दस साल के थे. यह शादी शिवाजी महाराज के निधन होने से दो सप्ताह पहले हुई थी. अपने सौतेले भाई की शादी में सांभाजी शामिल नहीं हुए थे. मुगलों के साथ एक साल बिताने के चलते उस वक्त सांभाजी को मराठा साम्राज्य में संदेह की नज़रों से देखा जाने लगा था.
उस दौर के दस्तावेज़ों का चार दशक तक अध्ययन करने वाले वी सी बेंद्रे ने सांभाजी पर एक पुस्तक लिखी है, छत्रपति सांभाजी महाराज. यह पुस्तक 1958 में पूरी हुई. वे कुछ समय तक भारत इतिहास संशोधन केंद्र में भी काम कर चुके थे. उन्होंने अपने पुस्तक के लिए मराठा इतिहास की जानकारी लंदन के इंडिया हाउस और ब्रिटिश लाइब्रेरी से भी जुटाई थी.
हालांकि जयसिंह राव पवार के मुताबिक सच्चाई अलग थी और सांभाजी राजा, सोयराबाई और उनके सहयोगी प्रधानों से नाराज़ नहीं थे.
राजाराम के विवाह के बाद शिवाजी महाराज बीमार पड़े और तीन अप्रैल, 1680 को उनकी मौत हुई. उनकी मौत पर भी इतिहासकारों में मतभेद दिखता है. यह भी कहा जाता है कि उन्हें ज़हर दिया गया था.
बेंद्रे ने लिखा है, "कुछ जगहों पर दावा किया गया है कि सोयराबाई ने शिवाजी को ज़हर दिया, हालांकि मुझे नहीं लगता कि इसमें कोई सच्चाई होगी."
शिवाजी के निधन के बाद
शिवाजी महाराज के निधन के बाद रायगढ़ में घटनाक्रम तेजी से बदला और राजाराम को गद्दी पर बिठाने की कोशिशें शुरू हो गईं. कुछ ही दिनों में राजाराम का राज्यभिषेक कर दिया गया.
जब राजाराम साम्राट बने तो सांभाजी को कैद करने की योजना बनाने का ज़िक्र मराठी दस्तावेज़ों में मिलता है. बेंद्रे ने लिखा है, "इस षडयंत्र के पीछे अन्नाजी का हाथ था, उन्होंने इसमें सोयराबाई और पेशवा को शामिल कर लिया. अन्नाजी के ताक़तवर होते ही पेशवा की स्थिति वैसे भी कमज़ोर थी, वहीं सोयराबाई अपने बेटे को गद्दी पर बिठाना चाहती थीं."
इस षड्यंत्र का ज़िक्र करते हुए बेंद्रे ने सोयराबाई के भाई हाम्बीराव मोहिते का ज़िक्र भी किया है जो शिवाजी के भरोसेमंद सेनापति थे और रायगढ़ में ही थे, वे आख़िर तक सांभाजी महाराज के वफ़ादार बने रहे.
जयसिंह राव पवार ने लिखा है कि सोयराबाई ने अपने बेटे को महाराज बनाने से पहले अपने भाई से भी बातचीत नहीं की थी.
जब सांभाजी रायगढ़ पहुँचे
प्रधानमंत्रियों ने रायगढ़ से पन्हालगढ़ जाकर सांभाजी राजा को गिरफ़्तार करने की योजना बनाई. लेकिन शिवाजी के सेनापति हाम्बीराव मोहित सांभाजी के पक्ष में थे, उन्होंने पहले ही पेशवाओं को गिरफ्तार करके उन्हें सांभाजी महाराज के सामने पेश कर दिया.
फिर इन देशद्रोहियों को रायगढ़ लाया गया. उस वक्त की घटनाओं पर आधारित दस्तावेज़ों में मल्हार रामराव चिटनीस ने लिखा है कि सांभाजी ने रायगढ़ पहुंचते ही उनकी आज्ञा पर ज़हर देकर मार दिया गया. यह दस्तावेज़ में 1732 लिखा गया था. क्योंकि यह सांभाजी की मौत के कई साल बाद मल्हार राम राव ने यह लिखा था इसलिए मल्हार रामराव चिटनीस के लिखे पर काफी सवाल उठाए गए हैं.
इतिहासकार जयसिंहराव पवार ने लिखा है कि, मल्हार रामराव के परदादा के पिता ने सांभाजी महाराज ने हाथी के पैरों तले रौंदवा दिया था, इसकी नाराज़गी मल्हार रामराव की लेखनी में भी दिखती है.
वहीं प्रसिद्ध इतिहासकार वीके राजवाड़े के मुताबिक इन दस्तावेज़ों का इतिहास पर शोध करने वाले बेहतर इस्तेमाल कर सकते हैं.
सांभाजी महाराज के रायगढ़ आने के बाद की घटनाओं का एक दूसरा ज़िक्र अनुपुराण में भी मिलता है जिसमें कहा गया है कि सांभाजी सोयराबाई सहित अपनी दूसरी सौतेली मांओं से मिलते हैं और उन्हें सांत्वना बंधाते हैं.
वीसी बेंद्रे ने अपनी पुस्तक में छत्रपति सांभाजी महाराजा में लिखा है कि शिवाजी महाराज के निधन के बाद सोयराबाई डेढ़ साल तक ज़िंदा रहीं.
मशहूर इतिहासकार यदुनाथ सरकार ने 1919 में प्रकाशित अपनी पुस्तक शिवाजी एंड हिज़ टाइम में भी इन प्रसंगों का जिक्र किया है. वहीं इतिहासकार इंद्रजीत सावंत के मुताबिक इन विवरणों के आधार पर सांभाजी के चरित्र के इर्द गिर्द कई नाटक लिखे गए, जिसके चलते उनकी ग़लत छवि भी लोगों के दिमाग़ में बनी.
सांभाजी बने महाराज
सांभाजी शिवाजी महाराज के निधन के नौ महीने बाद, 16 जनवरी, 1681 को महाराज बने. जयसिंहराव पवार ने लिखा है कि उन्होंने गद्दी संभालते ही जेल में बंद सभी अधिकारियों को रिहा कर उनके पद पर बहाल कर दिया लेकिन कैद में ही प्रधान पंत की मौत हो गई थी.
हालांकि सांभाजी के गद्दी संभालते हुए रायगढ़ में विद्रोह की स्थिति भी बनी, लेकिन दो बार उन कोशिशों को नाकाम किया गया. ये सब सांभाजी के महाराज बनने के छह से सात महीनों के भीतर ही हुआ.
एक बार सांभाजी को ज़हर देने की कोशिश हुई थी तो दूसरी बार सांभाजी ने षड्यंत्र को नाकाम किया. इन षड्यंत्रों के बारे में मुंबई में मौजूद ब्रिटिशों ने भी लिखा था.
डॉ. जयसिंहराव पवार ने अपनी पुस्तक छत्रपति सांभाजी- एक चिकित्सा में लिखा है, "आठ सितंबर, 1681 को अन्नाजी, सोयराबाई और हिरोजी फरज़ंद ने सांभाजी राव के ख़िलाफ़ षड्यंत्र किया, उन्होंने सुल्तान अकबर को भी साथ लेने की कोशिश की लेकिन वह सांभाजी के प्रति विश्वासपात्र बना रहा और उसने इसकी जानकारी सांभाजी को भी तत्काल दे दी."
इसका ज़िक्र मराठी इतिहास के दस्तावेज़ों में भी मिलता है, जिसके मुताबिक इस षड्यंत्र में शामिल लोगों को फांसी पर चढ़ा दिया गया लेकिन सोयराबाई ने लोकलज्जा के चलते ज़हर खाकर जान दे दी.
इतिहासकार जीसी सरदेसाई की किताब स्टेट ऑफ़ मराठेशाही 1935 में प्रकाशित हुई, इसमें उन्होंने लिखा है, "हीरोजी जब रायगढ़ लौटे तो उन्होंने सोयराबाई और अन्नाजी पंत के साथ बात करके पहले एक दो महीने के भीतर ही सांभाजी को हटाकर राजाराम को गद्दी पर बिठाने की योजना बनाई, जब अकबर के ज़रिए सांभाजी को इसकी जानकारी मिली तो वे हैरान रह गए थे."
सोयराबाई की मौत कब हुई थी?
आधिकारिक दस्तावेज़ों के मुताबिक सोयराबाई की मौत 27 अक्टूबर, 1681 को हुई. लेकिन ये मौत कैसे हुई, इसको लेकर स्पष्ट जानकारी का आभाव है.
कोल्हापुर में रहने वाले इतिहासकार इंद्रजीत सावंत के मुताबिक, अन्ना जी और बालाजी को फांसी देने का ज़िक्र तो है लेकिन सोयराबाई की मौत कैसे हुई, इसको लेकर कोई जानकारी नहीं मिलती.
सावंत ने खुद भी गिरीश कुबेर की किताब के इस हिस्से पर आपत्ति जताई है, उन्होंने कहा कि यह काल्पनिकता के आधार पर सांभाजी के चरित्र को नुकसान पहुंचाने की कोशिश है.
बीबीसी मराठी ने इस पूरे विवाद पर जब पुस्तक के लेखक गिरीश कुबेर से बात की तो उन्होंने लिखित में जवाब दिया है, "रेनेसा स्टेट में सतवाहन साम्राज्य से लेकर आधुनिक दौर तक के महाराष्ट्र के कहानी है. ऐसी किताब छत्रपति शिवाजी और उनके उत्तराधिकारी के चर्चा के बिना पूरी नहीं हो सकती थी. मैंने जो भी लिखा है वह प्रसिद्ध इतिहासकारों के संदर्भ के साथ है. किताब के लिए ली गई सामाग्रियों के स्रोत का ज़िक्र किताब के अंत में दिया गया है."
कई इतिहासकारों से बात करने और कई दस्तावेज़ों को पढ़ने के बाद यह स्पष्ट होता है कि सोयराबाई और सांभाजी महाराज में राजगद्दी को लेकर संघर्ष था. इसके ऐतिहासिक साक्ष्य मौजूद हैं. लेकिन विश्वसनीय और तथ्यपरक जानकारी के अभाव में कुछ चीज़ों के बारे में स्पष्टता से कोई दावा नहीं किया जा सकता, सोयराबाई की मौत एक ऐसा ही पहलू है.
मराठाओं की मौजूदा पहचान और महाराष्ट्र की राजनीति एक हद तक शिवाजी के इर्द गिर्द घूमती है, ऐसे में इतिहास को समझने की कोशिश करने वालों के सामने मुश्किल बढ़ गई है.
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