ऐसा था शनिवार वाड़ा

 

पुणे में शनिवार वाड़ा के एक तरफ़ एक दरवाज़े को देखकर ही एहसास हो जाता है कि पेशवा बाजीराव की पत्नी मस्तानी को पेशवा घराने में कितना नापसंद किया जाता था। पेशवा बाजीराव प्रथम ने बुंदेलखंड के राजा छत्रसाल की बेटी मस्तानी से सन 1729 में शादी की थी। शादी के बाद मस्तानी ने पेशवा के निवास शनिवार वाड़ा में कुछ साल बिताए थे। जिस जगह वह रहती थीं उसे मस्तानी महल कहा जाता है। इस बीच हाल ही में हिंदी फ़िल्म बाजीराव मस्तानी बनी और इसकी सफलता के बाद लोग इस महल को देखने कि उमड़ने लगे हैं। शनिवार वाड़ा एक समय मराठा साम्राज्य का 67 साल तक राजनीतिक केंद्र रहा था। लेकिन सैलैनियों को अब यहां सिर्फ़ प्रवेशद्वार, दीवारों और प्लिंथ के सिवाय और कुछ नहीं दिखता।

21 फ़रवरी सन 1828 में शनिवार वाड़ा में आग लग गई थी और इसमें सब कुछ भस्म हो गया था। अब सवाल ये पैदा होता है कि ख़ुशहाली के दिनों में शनिवार वाड़ा आख़िर कैसा रहा होगा? जो ऐतिहासिक दस्तावेज़ मौजूद हैं उसके आधार पर इसकी कल्पना करना बहुत मुश्किल है। लेकिन प्रसिद्ध इतिहासकार दत्तात्रे बलवंत पणनिस (1870-1926) ने अपनी किताबपूना बायगोन डेज़” (1921) में इसका उल्लेख किया है जिसे आज भी प्रमाणिक माना जाता है।

मस्तानी | विकिमीडिआ कॉमन्स

शनिवार वाड़ा का निर्माण

पेशवा बाजीराव-प्रथम के पिता बालाजी विश्वनाथ मराठा शासक छत्रपति शिवाजी के पोते और सतारा के छत्रपति साहू के पेशवा यानी प्रधानमंत्री हुआ करते थे। बालाजी विश्वनाथ का परिवार पुणे से क़रीब 32 कि.मी. दूर सस्वाद के एक वाड़े में रहता था। सन 1720 में बालाजी विश्वनाथ का अचानक देहांत हो गया। उसके बाद छत्रपति साहू ने बाजीराव-प्रथम को मराठा साम्राज्य का पेशवा नियुक्त कर दिया। तब उनकी उम्र केवल बीस साल की थी। पेशवा बाजीराव-प्रथम के दौर में मराठा साम्राज्य मालवा, गुजरात, बुंदेलखंड और यहां तक कि लगभग दिल्ली के दरवाज़े तक फैल गया था।

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सतारा के छत्रपति शाहू | विकिमीडिआ कॉमन्स

सन 1730 में पेशवा बाजीराव ने सस्वाद में पुश्तैनी निवास वाड़े को छोड़कर पुणे में बसने का फ़ैसला किया। पेशवा बाजीराव ने पुणे के एक गांव में मछुआरों और बुनकरों से पांच एकड़ ज़मीन ली और बदले में उन्हें मंगलवार पेठ क्षेत्र में जगह दे दी। शनिवार, दस जनवरी सन 1730 को बाजीराव-प्रथम ने नये वाड़े की नींव रखी। क्योंकि इस दिन को पवित्र माना गया था। दो मंज़िल और तीन चौक वाला महल दो साल में बनकर तैयार हो गया। इसके निर्माण में कुल 16,110 रुपये ख़र्च हुए थे।

हिंदू रीति-रिवाज के साथ 22 जनवरी सन 1732 को गृह प्रवेश हुआ और दिलचस्प बात ये है कि वो दिन भी शनिवार था। ज्योतिषीय कारणों से महल का नाम भी शनिवार वाड़ा रखा गया।

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शनिवारवाड़ा पेंटिंग | विकिमीडिआ कॉमन्स

सन 1728 में पेशवा बाजीराव-प्रथम ने राजा छत्रसाल बुंदेला की बेटी मस्तानी से शादी कर ली लेकिन बाजीराव के परिवार और पुणे के रुढ़िवादी ब्राह्मणों ने ये शादी स्वीकार नहीं की। शादी के बाद मस्तानी जब महल में रहने आईं तो उनके लिये महल के एक तरफ़ अलग से कमरे बनवा दिए गए जिसे मस्तानी महल कहा जाता था। इस महल में जिस दरवाज़े से होकर जाया जाता था उसे मस्तानी दरवाज़ा कहते थे जो आज भी मौजूद है। महल के भीतर की साज़िशों को देखते हुये बाजीराव ने महल से कुछ दूर कोठरुड़ में मस्तानी के लिये अलग से एक घर बनवा दिया जहां मस्तानी अपनी मृत्यु (1740) तक रहीं।

नानासाहब पेशवा के शासनकाल में शनिवार वाड़ा

सन 1740 में पेशवा बाजीराव-प्रथम की मृत्यु के बाद उनके पुत्र बालाजी बाजीराव, जिन्हें नाना साहेब भी कहा जाता था, पेशवा बन गये। नाना साहेब के शासनकाल में मराठा साम्राज्य का ख़ूब विस्तार हुआ और ये उत्तर में एटक से लेकर दक्षिण में तंजोर तक फैल गया। इस दौरान पुणे सिर्फ़ मराठा साम्राज्य की राजनीतिक राजधानी बन गया था बल्कि महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र के रुप में उभर गया था।

बालाजी बाजीराव (1740-1761) ने महल में कई बदलाव किये और इसे और सुंदर बनाया। इसे भव्य बनाने में उन्होंने अपना ज्ञान और पैसा दोनों लगाये। महल के कई महत्वपूर्ण निर्माण कार्य नाना साहेब पेशवा के ज़माने में हुये। उस समय महल में उनके परिवार के बीस सदस्य रहते थे। उपलब्ध दस्तावेज़ों के अनुसार उस समय शनिवार वाड़ा परिसर में दस महल और पांच गेस्ट हाउस हुआ करते थे।

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नानासाहेब पेशवा | विकिमीडिआ कॉमन्स

जनवरी सन 1761 में, शनिवार वाड़ा में तब दुखों का पहाड़ टूट पड़ा जब नाना साहेब के सबसे बड़े बेटे विश्वासराव और चचेरा भाई सदाशिवराव भाऊ पानीपत में अहमदशाह अब्दाली की सेना के साथ हुये युद्ध में मारे गए। इस त्रासदी से दुखी नाना साहेब ने भी कुछ महीने बाद यानी 23 जून सन 1761 को दम तोड़ दिया। उनकी मृत्यु के बाद उनके दूसरे पुत्र माधवराव पेशवा बने। उस समय माधवराव महज़ 16 साल के थे और उन्हें उनके चाचा रघुनाथराव की साज़िशों का सामना करना पड़ रहा था। दुर्भाग्य से माधवराव की भी तपेदिक (टीबी) से सन 1772 में मृत्यु हो गई। मृत्यु के बाद उनका छोटा भाई नारायणराव उनका उत्तराधिकारी बना।

हत्या और त्रासदी

शनिवार वाड़ा के इतिहास में सबसे बड़ी त्रासदी 30 अगस्त सन 1773 को हुई। चाचा पेशवा रघुनाथराव के आदेश पर नारायणराव की निर्मम हत्या कर दी गई। गणेश उत्सव के अंतिम दिन (अनंत चतुर्दशी) महल के गार्ड्स के कमांडर सुमेर सिंह गर्दी ने अपने साथियों के साथ महल में घुसकर पेशवा की हत्या कर दी। हत्या के बाद महल में अफ़रातफ़री मच गई और इस दौरान पेशवा के अलावा महल के दस नौकरों के भी टुकड़े टुकड़े कर दिए गए। पूरा हत्याकांड डेढ़ घंटे तक चला। जांच पड़ताल में पता चला कि इसके पीछे रघुनाथराव (पेशवा के चाचा) का हाथ था।

पेशवा की हत्या के समय उनकी पत्नी गंगाबाई गर्भवती थी। पुत्र के जन्म के बाद नाना फणनीस के मातहत मंत्रियों के एक दल ने सवाई माधवराव को नया पेशवा घोषित कर दिया। तब वह सिर्फ़ 40 दिन के थे। ज़ाहिर है युवा पेशवा नाना फणनीस के हाथों की कठपुतली थे।

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माधव राव नारायण, मराठा नाना फडणवीस और अभियुक्त | विकिमीडिआ कॉमन्स

सवाई माधवराव ने इस महल में बीस यादगार साल गुज़ारे। गणपति रंग महल में उनके दरबार में सिर्फ़ सरदार और मराठा साम्राज्य के अन्य हिस्सों के मुखिया हुआ करते थे बल्कि यूरोपीय देशों और अन्य भारतीय सल्तनतों के राजदूत भी होते थे। सन 1782 में इसी महल में पेशवा की बहुत धूमधाम से शादी हुई। विवाह समारोह में हैदराबाद के निज़ाम, नागपुर के राजा, सतारा के छत्रपति और देश के कोने कोने से प्रमुखों तथा सरदारों ने शिरकत की। सन 1795 में सवाई माधवराव ने निज़ाम को खर्दा के युद्ध में हराया और इस जीत के बाद पूना में उनका भव्य स्वागत हुआ। ये विजय जुलूस मराठा गौरव का अंतिम प्रदर्शन था।

अक्टूबर सन 1795 में शनिवार वाड़ा में एक बार फिर त्रासदी हो गई। पेशवा सवाई माधवराव की, वाड़ा की तीसरी मंज़िल की बालकनी से गिरने से मौत हो गई। वह नीचे फव्वारे पर गिरे थे और उसी में उनकी दर्दनाक मौत हो गई। कुछ ने इसे हादसा बताया, कुछ ने आत्महत्या कहा, जबकि कुछ का कहना था कि उन्हें बालकनी से धक्का दिया गया था।

माधवराव की मृत्यु के बाद रघुनाथराव के पुत्र पेशवा बाजीराव-द्वतीय 18 साल की उम्र में अगले पेशवा बन गये। पेशवा बाजीराव-द्वतीय के पिता रघुनाथराव ने नारायणराव की हत्या करवाई थी। कहा जाता है कि पेशवा बाजीराव-द्वितीय, पर नारायण के भूत का साया था। इसे डर से उसने शनिवार वाड़ा को छोड़कर पुणे में शुक्रवार वाड़ा, बुधवार वाड़ा और विश्रामबाग़ जैसे कई महल बनवाए फिर वहीं जाकर रहने लगे थे। इसके साथ ही शनिवार वाड़ा के गौरवमय दिनों का अंत हो गया।

 

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नारायणराव की हत्या | विकिमीडिआ कॉमन्स

शनिवार वाड़ा का गौरवमय युग

शनिवार वाड़ा महल का मुख्य भवन छह मंज़िला था और कहा जाता है कि इस भवन की सबसे ऊंचे कोठे से आलंदी मंदिर का शिखर दिखता था। ये मंदिर महल से 23 कि.मी. दूर था। इस कोठे को मेघादंबरी (बादलों का कमरा) कहते थे। यहां से पेशवा सवाई माधवराव अक्सर दूरबीन से तारों को देखा करते थे। ये दूरबीन उन्हें उनके दरबार के अंग्रेज़ दूत सर चार्ल्स मैलेट ने उपहार में दी थी। महल परिसर के पांच दरवाज़ों के नाम थे- दिल्ली दरवाज़ा- ये मुख्य दरवाज़ा था जो उत्तर (दिल्ली) की तरफ़ था, गणेश दरवाज़ा- ये दरवाज़ा गणेश मंदिर के पास था, मस्तानी दरवाज़ा- इसका नाम मस्तानी के नाम पर रखा था, खिड़की दरवाज़ा- ये खिड़कीनुमा दरवाज़ा था जिससे होकर महल में प्रवेश किया जाता था, जांबुल दरवाज़ा- पास में जामुन का एक पेड़ था जिसकी वजह से इसका नाम जांबुल दरवाज़ा पड़ा।

 

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नील का दिल्ली गेट, पुणे, भारत, 1820 | विकिमीडिआ कॉमन्स

महल में चार बड़े दरबार या चौक थे और कई सभागार थे जिन्हें दीवान ख़ाना कहा जाता था। इनके बारे में हमें ज़्यादा जानकारी नहीं है लेकिन इनके नामों से इनकी भव्यता का पता चलता है-

गणपती रंग महल- आम दरबार

नचाचा दीवान ख़ाना- नृत्य सभागार

आर्से महल- शीशों का सभागार

जूना आर्से महल- शीशों का पुराना सभागार

दादा साहब आंचा दीवान ख़ाना- रघुनाथराव पेशवा का सभागार

थोरल्या राय आंचा दीवान ख़ाना- प्रथम पेशवा का सभागार

नारायण राव आंचा महल- नारायणराव पेशवा का सभागार

हस्ती दांती महल- हाथी के दांतों का सभागार

शनिवार वाड़ा एक बड़े अपार्टमेंट की तरह था जहां विभिन्न परिवारों के अपने अपने कमरे होते थे। कुछ स्थान सामुहिक उपयोग के लिये होता था। इनके उलावा महल में राजकोष, स्टोर रुम, रिकार्ड रुम, लाइब्रेरी, जवाहरख़ाना, शस्त्रागार और दवाई ख़ाना भी होता था। पूरी गृहस्थी की अच्छी से देखरेख होती थी। महल के प्रबंधन के लिये अलग अलग अफ़सर नियुक्त किये गए थे। यहां हर समय क़रीब 500 सुरक्षा कर्मी तैनात रहते थे।

गणपती रंग महल

शनिवार वाड़ा का मुख्य दरबार गणपती रंग महल था जो बालाजी बाजीराव ने गणेश उत्सव मनाने के लिये सन1755 में बनवाया था। यहां मत्वपूर्ण अतिथियों का आदर सत्कार किया जाता था और संधियां की जाती थीं। यहीं पेशवा सवाई माधवराव औऱ अंग्रेज़ दूत सर चार्ल्स मैलेट के बीच 1790 में संधि हुई थी। जिस कमरे में संधि हुई थी उसकी पेंटिंग मैलेट ने बनाई थी जो लंदन में टैट गैलरी में रखी हुई है।

 

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गणेश रंग महल - सर चार्ल्स माल्ट ने 1790 संधि पर हस्ताक्षर किए | विकिमीडिआ कॉमन्स

अंग्रेज़ सैनिक अधिकारी कैप्टन मूर 1790 के दशक में पूणे का दौरा किया था और उसने इस सभागार की भव्यता को इस तरह बयां क्या था:

उनका (पेशवा) पूना के महल में एक बहुत सुंदर कमरा है जिसे गणेश कक्ष कहा जाता है। यहां गणेश उत्सव के मौक़े पर अनेक अतिथियों का स्वागत किया जाता है, मैंने यहां सौ से ज़्यादा नर्तकियों को एक साथ नाचते देखा है। सभागार के एक तरफ़ एक आले में इस देवता (गणेश) की संगमरमर की मूर्ती रखी हुई है। इसके आसपास और भी पौराणिक मूर्तियां हैं। सभागार की दूसरी तरफ़ पानी की सकरी नहर है जिसमें फ़व्वारे लगे हुए हैं और वहां फूलों का एक बाग़ है। फूलों की ख़ुशबू और फ़व्वारे की कलकल की आवाज़ पूरे दृश्य को मनेरम बना देती है। पूर्वी सांस्कृतिक वर्ग, स्वरुप और वेशभूषा के अप्रतिम नमूने पूना दरबार वाली श्री डेनियल की खूबसरत तस्वीरों से पता चलता है किये कमरा बहुत कुशल ढंग से बनाया गया है।

इसी गणेश रंग महल के एक कोने में पेशवा नारायणराव की सन 1773 में निर्मम हत्या कर दी गई थी। इसी महल की छत से नारायणराव के पुत्र सवाई माधवराव की सन 1795 में गिरकर मौत हो गई थी।

 

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पेशवा गणेश पूजा करते हुए | विकिमीडिआ कॉमन्स

हज़ारी करंजे (एक हज़ार धाराओं वाला फ़व्वारा)

शनिवार वाड़ा ख़ूबसूरत फव्वारों के लिये भी जाना जाता था। इनके अवशेष अभी हैं। इन फव्वारों में मुग़ल प्रभाव देखा जा सकता है। इनमें सबसे प्रसिद्ध फव्वारा हज़ारी कंरंजे है जो मुख्य महल के पश्चिम की तरफ़ स्थित है। इसका आकार कमल के फूल की तरह था जिसकी 16 पंखुड़ियां थीं। हर पंखुड़ी में 16 नोजल थे। फ़व्वारे के 196 नोजल से पानी झरता था और ये पेशवा परिवार की सबसे ज़्यादा पसंदीदा जगह थी।

 

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फव्वारा हज़ारी कंरंजे | विकिमीडिआ कॉमन्स

गणपती रंग महल के पश्चिमी तरफ़ एक जलाशय था। इस जलाशय में पत्थरों को इस तरह से तराशकर लगाया गया था कि जब भी पानी यहां से गुज़रता था, कलकल की आवाज़ होती थीं और लहरे उठती थीं। इन्हें चादर कहा जाता था। चादर यानी पानी की सफ़ेद शॉल। इन पारदर्शी झरनों के पीछे आलों में रंगीन लाइट लगी होती थी। पेशवा अपने मेहमानों को यहां चादर शो देखने के लिये बुलाते थे। इस मौक़े पर नाच-गाना भी होता था।

 

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जलाशय जहाँ चादर शो होता था | विकिमीडिआ कॉमन्स

अंतिम त्रासदी

पेशवा बाजीराव-द्वतीय कभी भी शनिवार वाड़ा में नहीं रहे। वह ज़्यादातर अपने अन्य निवासों में ही रहा करते थे। तीसरे एंग्लो-मराठा युद्ध के बाद अंग्रेज़ों ने सन 1818 में पुणे और शनिवार वाड़ा पर कब्ज़ा कर लिया। पेशवा की ज़मीनों को अंग्रेज़-साम्राज्य में शामिल कर लिया गया और पेशवा बाजीराव-द्वतीय को बंदी बनाकर मौजूदा समय के उत्तर प्रदेश के कानपुर के पास बिठूर में क़ैद कर दिया। निर्वासन के समय पेशवा बाजीराव शनिवार वाड़ा का ज़्यादातर सामान और ज़ेवर अपने साथ ले गए। उनके साथ उनके तमाम कर्मचारी भी चले गये थे। कभी गहमा गहमी से भरपूर शनिवार वाड़ा एकदम वीरान हो गया था।

अंग्रेज़ो की ईस्ट इंडिया कंपनी वाड़ा का इस्तेमाल कई कामों के लिये करने लगी। महल के भू-तल को जेल बना दिया गया, पहली मंज़िल को अस्पताल में तब्दील कर दिया गया जबकि तीसरी मंज़िल को पागलख़ाने में परिवर्तित कर दिया गया। 21 फ़रवरी 1827 में पागलख़ाने में अचानक आग लग गई जो नियंत्रण के बाहर हो गई। लकड़ी का बना पूरा वाड़ा आग में जलकर ख़ाक हो गया। आग में सिर्फ़ दरवाज़े और दीवारें ही बचीं। लगभग 70 साल तक वाड़ा वीरान पड़ा रहा। इस दौरान यहां कुछ लोगों ने झोपड़ियां बना ली थीं। लेकिन सन 1919 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने इसे अपने संरक्षण में ले लिया और खंडहर के आस पास एक बाग़ बना दिया।

 

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आग लगने के बाद शनिवार वाड़ा | विकिमीडिआ कॉमन्स

आज यहां आने वाले लोग बस कल्पना ही कर सकते हैं कि पेशवाओं का ये भव्य स्मारक अपने अच्छे दिनों में कैसा दिखाई देता होगा

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