आजादी के 70 साल: ये पांच रियासतें नहीं चाहती थीं बनना भारत का हिस्सा
जूनागढ़ के नवाब महाबत खान। (तस्वीर- विकीकॉमंस)
भारत 15 अगस्त 1947 को करीब दो सौ साल लम्बी ब्रिटिश दासता से आजाद हुआ। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में कहें तो भारत में जीवन और स्वतंत्रता की नई पौ फूटी थी लेकिन ब्रिटिश शासन के खत्म होने के बाद देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी यहां की 500 से ज्यादा रियासतों का नए राष्ट्र में विलय। इन राजे-रजवाड़ों को ब्रिटिश हुकूमत ने हमेशा सीमित स्वायत्तता देकर बरकरार रखा था। ब्रिटिश ने रियासतों के भविष्य को भारत और पाकिस्तान की नई सरकारों पर छोड़ दिया था। भारत की आजादी की लड़ाई की अगुवाई कर रही कांग्रेस ने अपने 1938 के हरिपुरा अधिवेशन में ही साफ कर दिया था कि वो स्वतंत्रता के बाद सभी रियासतों के भारत में विलय करवाने की पक्षधर है। आजादी के बाद रियासतों के विलय का जिम्मा सरदार वल्लभभाई पटेल और वीपी मेनन को सौंपा गया।
पटेल और मेनन को वायसराय लुईस माउंटबेटन के नेतृत्व में सभी रियासतों के प्रमुखों से बातचीत करके उन्हें भारतीय गणराज्य में शामिल होने के लिए मनाना था। बीकानेर, बड़ौदा और राजस्थान की कुछ अन्य रियासतें सबसे पहले भारतीय गणराज्य में शामिल हुईं लेकिन कुछ रियासतें ऐसी भी थीं जो भारत में शामिल होने के बजाय खुद को स्वतंत्र देश घोषित करने का इरादा रखतीं थीं। कुछ रियासतें ऐसी भी थीं जो भौगोलिक रूप से भारतीय इलाके के बीच होने के बावजूद पाकिस्तान का हिस्सा बनना चाहती थीं। आइए एक नजर डालते हैं ऐसी ही पांच रियासतों पर जो आजादी के समय भारत का अंग नहीं बनना चाहती थीं।
त्रावणकोर के दीवान सर सीपी रामास्वामी अय्यर।
1- त्रावणकोर- दक्षिण भारतीय राज्य त्रावणकोर भारत में विलय से इनकार करने वाली रियासतों का अगुआ था। त्रावणकोर रियासत के दीवान और वकील सर सीपी रामास्वामी अय्यर ने 1946 में ही साफ कर दिया था कि वो इस मसले पर अपने विकल्प खुले रखेंगे। इतिहासकार रामचंद्र गुहा के अनुसार त्रावणकोर के इस रवैये के पीछे मोहम्मद अली जिन्ना की प्रेरणा काम कर रही थी। ये भी कहा जाता है कि सीपी अय्यर ने तत्कालीन ब्रिटिश सरकार से एक गुप्त समझौता किया था जिसके एवज में ब्रिटिश उनकी मांग का समर्थन करने वाले थे। माना जाता है कि ब्रिटिश खनिज पदार्थों से संपन्न त्रावणकोर राज्य पर अपना परोक्ष नियंत्रण बनाए रखना चाहते थे। जुलाई 1947 तक त्रावणकोर अपने इस रुख पर कायम रहा। लेकन जब जुलाई 1947 में केरल की सोशलिस्ट पार्टी के एक सदस्य ने सीपी अय्यर पर जानलेवा हमला किया उसके बाद वो भारत में विलय के लिए तैयार हो गए। 30 जुलाई 1947 को त्रावणकोर भारत का आधिकारिक हिस्सा हो गया।
भारतीय रजवाड़ों की फाइल फोटो। (तस्वीर- विकीकॉमंस)
2- जोधपुर- जोधपुर की इस रियासत की अधिकांश प्रजा हिंदू थी और राजा भी लेकिन उनकी मंशा पाकिस्तान का हिस्सा बनने की थी। जोधपुर के महाराजा हनवंत सिंह को न जाने कैसे ये यकीन हो गया था कि उनका भला पाकिस्तान का हिस्सा बनने में है। मोहम्मद अली जिन्ना ने महाराजा को कराची के बंदरगाह पर पूर्ण नियंत्रण देने का भी लालच दिया। जब वल्लभभाई पटेल को जोधपुर के महाराजा के इरादों का पता लगा तो उन्होंने तत्काल कई प्रलोभन दिए और मुस्लिम राष्ट्र में शामिल होने पर सामने वाली दिक्कतें बताईं। इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब “इंडिया ऑफ्टर गांधी” में लिखा है कि जब रियासत के विलय के दस्तावेज पर दस्तखत हो रहे थे तो महाराजा ने नाटकीय रूप से रिवाल्वर निकाल ली और सचिव के सिर पर लगाकर कहा कि “मैं तुमसे हुक्म नहीं लूंगा।” हालांकि उसके कुछ ही मिनट बाद उन्होंने शांतिपूर्वक उन दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर दिए।
3- भोपाल- आजादी के समय भारत में शामिल नहीं होने वाले रियासतों में भोपाल भी शामिल था। भोपाल के नवाब हमीदुल्लाह खान मुसलमान थे लेकिन उनकी अधिकांश जनता हिंदू थी। नवाब की मुस्लिम लीग के नेताओं से करीबी दोस्ती थी। नवाब कांग्रेस के प्रबल विरोधी थे। नवाब ने माउंटबेटन से अपने इरादे बता दिए थे लेकिन बाद में वो यह कहते हुए भारत में शामिल हो गए कि “कोई भी रिसायत अपने करीबी स्वतंत्र-उपनिवेश से भाग नहीं सकती।” जुलाई 1947 में नवाब ने कई अन्य रियासतों की राह पर चलते हुए भारत में विलय के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।
4- हैदराबाद- जिन रियासतों के भारत में शामिल करने में सबसे मुश्किल आई हैदराबाद उनमें एक थी। दक्षिण भारत में स्थित इस रियासत की गिनती दुनिया की सबसे अमीर रियासतों में होती थी। हैदराबाद रियासत का मध्य भारत के एक बड़े हिस्से पर भी शासन था। हैदराबाद के निजाम मीर उस्मान अली की अधिकांश रियाया हिंदू थी। निजाम चाहते थे कि हैदराबाद को ब्रिटिश कॉमनवेल्थ के तहत एक स्वतंत्र राष्ट्र घोषित किया जाए। माउंटबेटन ने निजाम से साफ कह दिया था कि ये संभव नहीं है। निजाम के पास भारत और पाकिस्तान में से किसी एक को चुनने का विकल्प बच गया। बंटवारे की आहट से हैदराबाद में हिंसा का दौर शुरू हो चुका था। मोहम्मद अली जिन्ना निजाम का खुलकर समर्थन कर रहे थे। सरदार वल्लभभाई पटेल को भारत के बीचोंबीच पाकिस्तान के अंग के रूप में हैदराबाद की मौजूदगी के भावी परिणामों का अंदेशा था। जून 1948 में माउंटबेटन के पद से इस्तीफा देने के बाद भारत सरकार ने कड़ा कदम उठाने का फैसला किया। 13 सितंबर 1948 को भारतीय सेना हैदराबाद “ऑपरेशन पोलो” के लिए पहुंची। चार दिन के संघर्ष के बाद निजाम ने हथियार डाल दिए। हैदराबाद का भारत में विलय हो गया। निजाम को हैदराबाद राज्य का राज्यपाल बना दिया गया।
5- जूनागढ़- गुजरात की जूनागढ़ रियासत भी 15 अगस्त 1947 को भारत का अंग नहीं थी। कठियावाड़ राज्यों में जूनागढ़ सबसे प्रमुख रियासत थी। जूनागढ़ के नवाब मोहम्मद महाबत खानजी तृतीय की अधिकांश प्रजा हिंदू थी। जूनागढ़ के नवाब ने मुस्लिम लीग के नेता सर शाह नवाज भुट्टो को राज्य के मंत्रिमंडल में जगह दे दी। भुट्टो राज्य का कार्यभार संभालते ही नवाब को पाकिस्तान में शामिल होने के लिए दबाव बनाने लगे। पाकिस्तान ने जूनागढ़ को शामिल करने की बात मान ली तो भारतीय नेताओं की भृकुटी टेढ़ी हो गई। जूनागढ़ के नवाब का रवैया जिन्ना के दो-राष्ट्रों के सिद्धांत के खिलाफ था। भारतीय नेताओं ने जूनागढ़ का आर्थिक रूप से काट दिया। नवाब पाकिस्तान भाग गए। वल्लभभाई ने पाकिस्तान से जूनागढ़ में जनमत संग्रह कराने की मांग की। आखिरकार भारतीय फौजों और पाबंदियों के दबाव में जूनागढ़ 20 फरवरी 1948 को जनमत संग्रह कराया गया और 91 प्रतिशत लोगों ने भारत में शामिल होने की इच्छा जाहिर की। नतीजतन, जूनागढ़ भारत का अंग बन गया।