असरदार देश को बनाने वाले सरदार
यह एक हैरतअंगेज सच है कि आज इस बात को बिसरा दिया गया है कि सरदार वल्लभ भाई पटेल (31 अक्टूबर 1875-15 दिसंबर 1950) ने चार साल तक नई दिल्ली स्थित 1-औरंगजेब रोड के घर में रहते हुए असंख्य रियासतों वाले ब्रिटिश इंडिया के एकीकरण की कठिन और महत्वपूर्ण प्रक्रिया के दायित्व का वहन करते हुए भारत को स्वाभाविक भौगोलिक एकता प्रदान की। यह तथ्य अनजाना और अप्रचारित ही है। वह भी तब जब ऐसा लगता है कि देश की राजधानी में स्मारक बनाने का अधिकार, कुछ चुनिंदा राजनीतिक परिवारों और संगठनों का ही विशेषाधिकार बन गया। पटेल की एक भिन्न विश्व दृष्टि थी। उन्होंने अपनी मृत्यु के एक वर्ष (1949) पहले कहा था, मैं स्वयं को हिंदुस्तान की सेवा करने वाला एक सैनिक मानता हूं और मैं अपने जीवन के अंत तक एक सैनिक ही बना रहूंगा। अगर मैं इस सेवा पथ से डिगा तो मैं रहूंगा ही नहीं। यह भी एक अल्पज्ञात ऐतिहासिक तथ्य है कि भारत की आजादी से पहले जब सन 1946 में प्रधानमंत्री पद के लिए प्रदेश कांग्रेस कमेटियों की राय मांगी गई तो 15 प्रादेशिक कमेटियों में से 12 ने सरदार पटेल के हक में राय दी, लेकिन फिर भी महात्मा गांधी ने प्रधानमंत्री पद के लिए नेहरू का समर्थन किया।
प्रख्यात उद्योगपति जे.आर.डी. टाटा ने एक साक्षात्कार में गांधी-नेहरू-पटेल त्रिमूर्ति पर गहरी टिप्पणी करते हुए कहा था कि ”सामान्यतया मैं अक्सर गांधीजी से मिलकर आने के बाद प्रफुल्लित और उत्प्रेरित लेकिन सदैव थोड़ा संशयी महसूस करता हूं, और जवाहरलाल से बातें करने के बाद भावात्मक जोश से ओतप्रोत मगर अक्सर भ्रमित और न समझने वाला जबकि वल्लभभाई से मुलाकात प्रसन्नता से भरपूर होती है और वापसी में हमारे देश के भविष्य के बारे में पुन : विश्वास भरा होता है। मैं अक्सर सोचता हूं कि यदि नियति ने जवाहरलाल के बजाय दोनों में उन्हें युवा (वल्लभभाई) बनाया होता तो भारत ने एक दूसरा पथ चुना होता और आज की तुलना में अच्छी आर्थिक स्थिति में होता।” वह बात अलग है कि महात्मा गांधी ने कारागार से लिखे एक पत्र में सरदार पटेल के इसी एकनिष्ठ सर्मपण भाव के बारे में कहा था कि मेरी कठिनाई यह है कि तुम मेरे साथ नहीं हो इसलिए मैं एकलव्य बनने का प्रयास कर रहा हूं, जिसने द्रोणाचार्य की अस्वीकृति के बाद अपने समक्ष द्रोणाचार्य की मिट्टी की प्रतिमा रखकर तीरंदाजी सीखी थी। मैं उसी तरह, तुम्हारी छवि का स्मरण करते हुए अपने प्रश्न उसके समक्ष रखता हूं। गांधी ने कांग्रेस पार्टी को लेकर अपनी अनमयस्कता को लेकर 19 अगस्त 1946 को गांधी जी ने सरदार पटेल को पत्र लिखा कि, तुम्हारी अनुमति के बिना मैं कांग्रेस कैसे छोड़ सकता हूं, किंतु व्यक्तिशः मुझे लगता है कि इसके सिवा दूसरा रास्ता नहीं है। मैं कांग्रेस के विकास में बाधक बना हुआ हूं। सामान्य कांग्रेसजन के लिए सत्य और असत्य, हिंसा और अहिंसा, खादी और मलमल में कोई अंतर नहीं रह गया है। उसे अपने ढंग से रहने देना चाहिए, पर वह मेरे रहते संभव नहीं हो पायेगा।
सरदार पटेल की वैचारिक दृढ़ता का ही फल था कि उन्होंने मोहम्मद अली जिन्ना की मुस्लिम लीग और अंग्रेजों के कुटिल षडयंत्रों के परिणामस्वरूप हुए भारत विभाजन के बाद भी सभी देसी रियासतों और रजवाड़ों का सफलता पूर्वक विलय किया।
16 मई 1939 को भावनगर में हुए साम्प्रदायिक दंगे के बाद उन्होंने वहां एक जनसभा में कहा कि मैं कायरता का कट्टर विरोधी हूं। कायर मनुष्यों का साथ करने के लिए मैं कभी तैयार नहीं हो सकता। युग को पहचान कर आत्मरक्षा करना हमारा फर्ज है। यह समय ऐसा है कि चारों तरफ गुंडे घूमते हैं। अगर यह मानने का कारण देंगे कि हम कायर हैं, तो गुंडे निर्भय होकर घूमेंगे। यह अराजकता का वातावरण भावनगर में ही हो सो बात नहीं है। परंतु ऐसा वायुमंडल तमाम हिन्दुस्तान में है।
इतना ही नहीं भारतीय मुसलमानों के अखंड भारत को खंडित करके मजहब के आधार पर आजाद मुल्क बनाने की इच्छा और उसके बाद भी यहां रहने के द्विविधा भाव को पटेल ने पहचान लिया था। भारतीय मुसलमानों की इसी ग्रंथि को ख्वाजा अहमद अब्बास ने सरदार जी में कुछ इस तरह पेश किया था। सुनहरी मस्जिद तो दिल्ली में है। सुनहरी मस्जिद ही नहीं जामा मस्जिद, लाल-किला भी। निजामुद्दीन औलिया का मजार, हुमायूं का मकबरा, सफदरजंग का मदरसा...यानी चप्पे-चप्पे पर इस्लामी हुकूमत के निशान जाते हैं।
फिर भी आज इसी दिल्ली बल्कि कहना चाहिए कि शाहजहांनाबाद पर हिन्दू साम्राज्य का झंडा फहराया जा रहा था। सोचकर मेरा दिल भर आया कि दिल्ली जो कभी मुसलमानों की राजधानी थी, सभ्यता और संस्कृति का प्रमुख केन्द्र थी, हमसे छीन ली गयी और हमें पश्चिमी पंजाब और सिन्ध, बलोचिस्तान वगैरह जैसे उजड्ड और गंवारू इलाकों में जबरदस्ती भेजा जा रहा था, जहां किसी को साफ-सुथरी उर्दू बोलनी भी नहीं आती।
वे अपनी बात कहने में देर और संकोच नहीं करते थे। यही कारण है कि आधुनिक भारत में उनके जितना स्पष्टवादी नेता अब तक कोई नहीं हुआ है। सन् 1946 में अंतरिम सरकार में गृहमंत्री बनने के कारण सरदार जिन्ना की आँख की किरकिरी बन गए थे। भारतीय मुसलमानों को समझने में उनकी दूरदृष्टि आज के राजनीतिक नेताओं से कहीं अधिक थी। इसी तथ्य को रेखांकित करते हुए सरदार पटेल ने कहा था, आपको (मुसलमानों) निश्चित तौर पर अपना व्यवहार बदलना चाहिए, खुद को बदली हुई परिस्थिति के अनुसार ढालना चाहिए। इस तरह का दिखावा न करे कि अरे आपके लिए तो हमारे दिल में इन्तहा मोहब्बत है। हमने आपकी मोहब्बत देख ली है चलिए, हम मोहब्बत भूल जाए। हम हकीकत का सामना करें। आप अपने से ही सवाल पूछे कि क्या आप सचमुच यहाँ टिके रहना चाहते है और हमारी मदद करना चाहते है या आप विद्वेषकारी हथकंडे अपनाना चाहते है। स्वतंत्रता मिलने के बाद देसी रियासतों के विलय की प्रक्रिया में मेवाड़ की पहल का स्वागत करते हुए उन्होंने कहा था कि भारत में अगर किसी भी शासक के पास स्वतंत्रता का दावा करने का कोई अधिकार होता तो वह मेवाड़ था। जो कि खुशी के साथ सहर्ष भारतीय संघ के साथ विलय के लिए तैयार हो गया कि यह उसके तेरह सदियों के लक्ष्य का पूरा होना है। पर मेवाड़ के लिए किसी अन्य शासक के पास यह अधिकार नहीं है कि वह उसका विलय कर सकें।
इतना ही नहीं, देश के पहले सूचना प्रसारण मंत्री के रूप में भी आजादी के बाद भारतीय अखबारों की भूमिका और उपयोगिता की बात उनकी नजर से ओझल नहीं हुई थी। इसी पर विचार करते हुए उन्होंने कहा था कि जिस समाचार पत्र का जन्म स्वतंत्र भारत में होता है, उसे जन्म से ही तंदुरुस्त होना चाहिए। गुलामी की हालत में भारत को मुक्त करने का जो समय था, उस समय समाचार पत्र का जो धर्म था और उसे जो कार्य था, उसमें और आज के समय में और धर्म में जमीन-आसमान का फर्क है। एक जिम्मेदार पत्रकार की कलम जनता पर जबरदस्त असर डाल सकती है। जितना जनता की भलाई के लिए डाल सकती है, उतना बुराई के लिए भी डाल सकती है।
(ये लेखक के निजी विचार हैं)