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नीतीश से ब्रेकअप BJP को कितना पड़ता है भारी, जानें पुराना रिकॉर्ड
बिहार की राजनीति को अगर देखा जाय तो 1990 की मंडल राजनीति ने वहां की राजनीति को बदल दिया और जातिगत राजनीति पूरी तरह से हावी हो गई। और इस राजनीति में पिछड़े और अति पिछड़े वर्ग के पास सत्ता की चाबी पहुंच गई।
Nitish Kumar and NDA Crisis: वैसे तो बिहार में भाजपा साल 1980 से चुनाव लड़ रही है। और अगर साल 1990 में तीन महीने का जनता दल (लालू यादव मुख्यमंत्री) का साथ छोड़ दिया जाय तो उसकी सही मायने में सत्ता में एंट्री 2005 में हुई। और उसके बाद से वह लगातार जद (यू) के साथ मिलकर सत्ता हासिल करती रही। और दोनों की जोड़ी ने ऐसा कमाल दिखाया कि लालू यादव का चुनावी करिश्मा कहीं खो गया। जद (यू) और भाजपा के जीत की सबसे बड़ी वजह ,वह जातिगत समीकरण था, जिसका तोड़ अभी तक विपक्षी दल राजद और कांग्रेस नहीं निकाल पाए है।
भाजपा को सवर्ण और पिछड़े वर्ग के साथ-साथ नीतीश कुमार की वजह से मुस्लिम और कुर्मी वोटों का साथ मिला। जिसके आगे राजद का यादव-मुस्लिम समीकरण धराशायी हो गया। और यही कारण है कि चाहे 2017 में भाजपा का दामन छोड़ कर राजद हासिल करना हो या फिर 2020 में भाजपा के मुकाबले सीटों के आधार पर छोटा दल होते हुए भी नीतीश कुमार के हाथों में सत्ता की कमान रही है। अब सवाल यही है कि अगर नीतीश भाजपा का साथ छोड़ते हैं तो क्या बिहार में अकेले अपने दम पर 2024 के लोक सभा और 2025 के विधान सभा चुनाव में 2019 और 2020 जैसा प्रदर्शन दोहरा पाएगी।
17 साल से क्यों है नीतीश के पास सत्ता की चाबी
पिछले साल से सत्ता की चाबी नीतीश कुमार के हाथ में ही है। इस दौरान वह भाजपा के साथ करीब-करीब 14 साल बिहार की सत्ता में रहे हैं। जबकि 2 साल राजद के समर्थन से सरकार में रहे। इस बीच एक साल उन्होंने 2014 के लोक सभा चुनाव में खराब प्रदर्शन को देखते हुए मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ दी थी। और उन्होंने जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया था।
बिहार की राजनीति को अगर देखा जाय तो 1990 की मंडल राजनीति ने वहां की राजनीति को बदल दिया और जातिगत राजनीति पूरी तरह से हावी हो गई। और इस राजनीति में पिछड़े वर्ग के पास सत्ता की चाबी पहुंच गई। और वह असर अभी तक जारी है। और नीतीश कुमार ने सोशल इंजीनियरिंग के जरिए अति पिछड़े वर्ग का राजनीतिक असर और बढ़ा दिया। बिहार में 15 फीसदी यादव,16 फीसदी मुसलमान, 8 फीसदी कोइरी ,मुसहर 5 फीसदी, कुर्मी करीब 4 फीसदी और महादलित वर्ग की नई कैटेगरी ने राज्य का चुनावी रंग ही बदल दिया। और इस अति पिछड़ी और महादलित की राजनीति हर दल की अपनी पैठ है। जैसे यादव और मुस्लिम वर्ग का बड़ा तबका राजद के साथ तो लव कुश (कुर्मी, कुशवाहा, कोइरी),,महादलित, महिलाएं जद (यू) के साथ तो सवर्ण वर्ग का एक बड़ा तबका भाजपा के साथ है।
2015 में भाजपा लड़ी थी अकेले
जातिगत समीकरण में बदलाव चुनाव में कैसे असर डालते हैं, इसकी बानगी 2015 के विधानसभा चुनाव में भी दिखी। चुनाव में जद (यू), राजद, कांग्रेस ने मिलकर चुनाव लड़ा था। वहीं भाजपा और एनडीए के दूसरे सहयोगी दल ने चुनाव लड़ा था। इन चुनाव में राजद, जद (यू) के नेतृत्व वाले महागठबंधन को 42 फीसदी वोट मिले। जबकि एनडीए को करीब 30 फीसदी वोट मिले। राजद को 80 सीटें, जदयू को 71 और कांग्रेस को जहां 27 सीटें मिलीं। वहीं भारतीय जनता पार्टी को 53 सीटे ही मिल पाईं। लेकिन 2020 में जब जद (यू) और भाजपा फिर से साथ आएं तो समीकरण ही बदल गया। और ऐसा पहली बार हुआ कि भाजपा को जद (यू) से भी ज्यादा सीटें मिंली। भाजपा को 77, जद (यू) को 45 सीटें मिल गईं।
2024 में दिखेगा असर
भाजपा जिस तरह 2020 में जद (यू) से बड़ी पार्टी बनी है, उसे 2024 और 2025 में नई उम्मीद दिख रही है। अगर नीतीश कुमार अलग होते हैं, तो भाजपा के लिए 2024 के लोक सभा चुनाव और 2025 के विधान सभा चुनाव में बेहतर प्रदर्शन का दबाव रहेगा। जहां तक लोक सभा चुनाव की बात है तो भाजपा ने बिहार में जद (यू) से अलग होने के बाद भी 40 में से 22 सीटों पर जीत हासिल की थी। जबकि जद (यू) को 2 सीटें मिली थी। वहीं 2019 में जद (यू) के साथ आने पर 40 में से 39 सीट पर एनडीए का कब्जा था। जिसमें भाजपा को 17, जद (यू) को 16 और एलजेपी को 6 सीटें मिली थीं।