‘पानीपत’ का तीसरा युद्ध : जब गरजी मराठी तलवारे
धरती माता के गले का अमूल्य आभूषण, भारत ! यह भूमि ज्ञान की, धर्म की, वीरता की, सुजलाम् सुफलाम् सम्पन्नता की….इस सम्पन्नता ने अनेक वैभव-लोभियों एवं आक्रमणकारियों को यहाँ आने के लिए आकर्षित किया।सन् 712… मोहम्मद बिन कासिम आया। वह क्या आया कि संकटों का सिलसिला ही शुरू हुआ। निजाम, बरीद, इमाद्, कृतुब, आदिल, मुगूल यह सारी विदेशी हुकूमतें हिन्दुस्तान के सीने पर नाचने लगीं। क्या हुआ होगा यहाँ की संस्कृति का, पूजा-अर्चना का, यहाँ की अस्मिता का?
उसी समय अँधेरे को चीरते हुए एक तेजस्वी, प्रतापी नरसिंह प्रकट हुआ, वह थी – छत्रपति श्री शिवराय। 1674… रायगढ़ पर राजा शिवाजी सिंहासनाधीश्वर हिन्दू-पद्-पातशाह बने और समूचा हिन्दुस्तान खुशी से झूम उठा।इसी हिन्दवी स्वराज्य को तहस-नहस करने के लिए मुगल बादशाह औरंगजेब पाँच लाख की सेना लेकर दक्षिण में उतरा, पर वीर मराठों ने 27 साल तक औरंगजेब के साथ जूझते हुए, उसे उसकी राक्षसी महत्त्वाकांक्षाओं के साथ महाराष्ट्र की भूमि में दफना दिया। इसके बाद छत्रपति पद पर विराजित हुए, शाहू महाराज। उन्होंने बड़े विश्वास के साथ बालाजी विश्वनाथ भट्ट को प्रधानमंत्री पद पर नियुक्त किया। बालाजी ने दिल्लीस के बादशाह पर मराठी हुकूमत की धाक जमाई।
मुगल बादशाह ने मराठों को चौथाई ‘सरदेशमुखी ‘ के अधिकार प्रदान किए। बालाजी की मृत्यु के पश्चात् पेशवा पद पर विराजमान हुए उनके सुपुत्र बाजीराव। बाजीराव मतलब साक्षात् तूफान, उसे कौन रोकता? अब पूरा उत्तरी हिन्दुस्तान मराठों के प्रभाव में आ गया। पुणे के शनिवार वाडा (महल) से दिल्लीत के तख्त को नियंत्रित किया जाने लगा। पूरे उत्तरी हिन्दुस्तान पर खुद का ग्रभुत्व रहे इसलिए बाजीराव ने कई सरदारों को वहाँ भेजा। इन्दौर में होलकर, ग्वालियर में शिंदे, बड़ौदा में गायकवाड, धार में पवार, बुंदेलखंड के प्रशासक गोविन्द पंत बुन्देले आदि-आदि। इस तरह के कई विश्वसनीय एवं श्रेष्ठ व्यक्तियों की वजह से उत्तरी हिन्दुस्तान में मराठों का जाल बुना गया।
बदकिस्मती से सन् 740 में बाजीराव जैसा अजेय सेनानी नर्मदा के किनारे रावेर खेड़ी में वीरगति को प्राप्त हुआ। बाजीराव की मृत्यु से व्याकुल छत्रपति शाहू ने उनके सुपुत्र नाना साहेब की योग्यता ध्यान में रखते हुए, उन्हें प्रधानमंत्री पद से नवाजा।अपने दादा और पिता की विरासत को आगे बढ़ाते हुए नाना साहेब ने हिन्दवी स्वराज्य की शोहरत में चार चाँद लगा दिए। पुणे के शनिवार वाडे की नगाड़े की गूँज से पूरा देश गूँज उठा।
सन् 1752 में हुई सुलह से मुगल बादशाह ने दिल्ली की सुरक्षा की जिम्मेदारी मराठों को सौंप दी। कितना अद्भुत है यह संयोग? सौ साल पहले हिन्दू स्वराज्य को ध्वस्त करने की कामना रखनेवाला मुगुल राज, अब उन्हीं के सामने लाचार होकर, सुरक्षा के लिए हाथ फैला रहा था।
इसी दौरान भारत की राजनीति में एक नई विदेशी शक्ति का प्रवेश हुआ-अहमदशाह अब्दाली। यहाँ पर हो रहे सत्ता के संघर्ष में दखलअंदाजी करने के लिए इस अफगान बादशाह अब्दाली को घर के भेदियों ने आमंत्रित किया।
वैसे तो पहले एक बार अब्दाली, नादिर शाह के साथ दिल्लीं आया था। इसी वजह से उसे यहाँ की भौगोलिक व राजनीतिक जानकारी थी। आगे चलकर वह अफगानिस्तान का बादशाह बना। वह अपनी बड़ी सेना और कुशल युद्ध नेतृत्व के बल पर अफगानी लोगों का सर्वसत्ता अधिकारी बन गया। तबंसे उसकी नजर ऐश्वर्य-सम्पन्न हिन्दुस्तान पर थी। सन् 747 के पहले आक्रमण के वक्तो वह पराजित हुआ लेकिन 752 व 756 में उसने फिर से आक्रमण किया। गोकुल वृंदावन, मथुरा के मन्दिरों का अत्यन्त क्रूरता से विध्वंस किया। दिल्ली को लूटते-खसोटते हुए लौट गया।अब दिल्ली के रक्षक बने मराठों को अपनी ताकृत दिखाने पर मजबूर किया। इस वक्त राघोबा दादा ने मराठों का नेतृत्व किया। उन्होंने नर्मदा पार की, यमुना को पार किया और सिन्धु नदी को पार करते हुए अटक के पार तक झंडे गाड़ दिए।
मात्र दो सालों में 4760 में पेशवाओं ने उदगीर में निजाम को चारों खाने चित्त किया। बुरहानपुर, अहमदनगर, बीजापुर मराठों के कब्जे में आ गए। सैकड़ों साल पहले 294 में अलाउद्दीन खिलजी ने यादवों की राजधानी देवगिरि को नष्ट कर उसे दौलताबाद बना दिया। अब कम-से-कम 500 सालों बाद देवगिरि पर स्वतंत्रता की रोशनी जगमगा उठी।
अब मराठों को रोकनेवाली कोई भी ताकत बची नहीं थी। पेशावर से लेकर तंजावूर तक और वसई से लेकर कलकत्ता कोलकता) तक तीब्र घोड़ों को कोई नहीं रोक सकता था। अटक से लेकर कटक तक समूचे देश पर एक ही झंडा फहराने का शिवाजी का सपना साकार हो उठने की संतुष्टि प्राप्त हो रही थी। तभी दुर्भाग्य ने हमला बोल दिया। उदगीर की जीत का जश्न मनानेवाले नाना साहेब को उत्तर से आई भयावह खबर का पता चला।
भारत पर फिर से आक्रमण करनेवाले अहमदशाह अब्दाली ने उत्तरी हिन्दुस्तान में उधम मचाया। उसका इंतजाम करने के लिए शिंदे, होलकर लड् रहे थे। ऐसे वक्त बुराड़ी घाटी के पास लड़ाई हुई और नजीब खान रोहिला का गुरु कुतुब शाह जिहाद का नारा देते हुए टूट पड़ा। वहाँ पर दत्ताजी शिंदे अभिमन्यु बन कर डटे हुए थे। घमासान युद्ध हुआ, दत्ताजी जुख्मी हालत में शत्रु के हाथ लग गए। उनका मजाक उड़ाने के लिए कृतुबशाह ने शैतानी हँसी में सवाल किया, “क्यों पाटिल ! अब लड़ोगे? ”” उस हालत में भी मौत से न डरते हुए दत्ताजी ने मराठी अभिमान के साथ कहा, “ बचेंगे तो और भी लडेंगे’”। क्रोधित हुए कुतुबशाह ने तलवार से दत्ताजी की गर्दन उड़ा दी। वीर दत्ताजी के इस करुण अंत से मराठी सैनिकों में गुस्से की लहर दौड़ गई और इस बेइज़्जुती का बदला लेना ही होगा, यह संकल्प ले लिया।
ऐसे समय, उत्तरी हिन्दुस्तान में किसे भेजा जाए? कौन जाएगा अब्दाली को काबू करने के लिए? और नाना साहेब ने चुना सदाशिवराव भाऊ। सदाशिवराव भाऊ – मतलब चमकती हुई तलवार! बडे भाई बाजीराव के छोटे भाई योद्धा चिमाजी अप्पा का पुत्र। नाना साहेब का चचेरा भाई ! उनके साथ था – हट्या-कट्टा नौजवान विश्वास राव। नाना साहेब का ज्येष्ठ पुत्र, भविष्य में होने वाला पेशवा । और मराठी सेना उत्तरी हिन्दुस्तान पर विजय प्राप्त करने निकल पड़ी
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