निहत्थे किसानों पर गरज उठीं बंदूकें और उन्होंने लुटा दी जवानी, आपके रोंगटे खड़े कर देगी यह कहानी
आज ही के दिन 21 अक्टूबर 1982 को शहीद हो गए थे धनंजय महतो और अजीत महतो। मंत्री रहते बंधु तिर्की और मुख्यमंत्री रहते दिशोम गुरु शिबू सोरेन ने नहीं पूरा किया नौकरी का वादा।
आज से 40 वर्ष पहले 21 अक्टूबर 1982 की बात है। झारखंड के कोल्हान प्रमंडल के औद्योगिक शहर जमशेदपुर से सटे ईचागढ़ का हर गांव सूखे से जूझ रहा था। खेतों में दरार देखकर किसानों का कलेजा फट रहा था। चहुंओर त्राहिमाम की स्थिति थी। जिंदगी और मौत से लोग जूझ रहे थे। ऐसे में धनंजय महतो और अजीत महतो ने आंदोलन का बिगुल बजा दिया। किसानों का जनसैलाब ईचागढ़ प्रखंड के तत्कालीन तिरूलडीह मुख्यालय पर उमड़ पड़ा। नारे गूंज रहे थे- ईचागढ़ के गांवों को सूखाग्रस्त घोषित करो। तत्कालीन सरकार को जनतांत्रिक तरीके से अपनी बात बताने आए इन निहत्थे ग्रामीणों पर पुलिस ने ताबड़तोड़ फायरिंंग कर दी। बिना किसी आदेश...। चहुंओर भगदड़ मच गई। गिरते भागते किसान खून से पथपथ थे। किसानों का नेतृत्व कर रहे धनंजय महतो व अजीत महतो मौके पर ही शहीद हो गए थे।
अब भी आंखों में उतर आता है वह खौफनाक मंजर
जैसे ही 21 अक्टूबर हर वर्ष धमक पड़ता है, उस स्याह दिन की यादें ताजा हो उठती हैं। खौफनाक मंजर इलाके के किसानों की आंखों में उतर आता है। धनंजय महतो की पत्नी बारी देवी की आंखें नम हो जाती हैं। उनकी सूनी मांग सवाल पूछती है- न्याय कब मिलेगा? वह कहती हैं कि पति की शहादत ने झारखंड अलग राज्य आंदोलन को रफ्तार दिया, धार दिया। लेकिन इलाके की सूरत नहीं बदली। किसानों की हालत नहीं बदली। खेत-खलिहान व्यवस्था को अब भी मुंह चिढ़ा रहे हैं। धनंजय महतो के पुत्र उपेन महतो की पीड़ा है कि हर साल नेताओं की टोली यहां आती है। शहीदों की तस्वीर पर फूल-माला चढ़ा कर चली जाती है। वर्ष 2007 की बात है, तत्कालीन शिक्षा मंत्री बंधु तिर्की भी आए थे। नौकरी दिलाने का उन्होंने वादा किया। पढ़ाई-लिखाई का हिसाब-किताब जाना-समझा, और जाने के बाद वादा भूल गए। अब तक नौकरी नहीं मिली। वर्ष 2009 में मुख्यमंत्री रहे दिशोम गुरु शिबू सोरेन ने भी नौकरी का वादा तो किया, लेकिन मुख्यमंत्री रहते पूरा नहीं कर सके। इस वर्ष यानी 2019 में समाजसेवी हरेलाल महतो इस शहीद परिवार के लिए चार कमरे का मकान बनवा रहे हैं।
शहादत, मुआवजा और नौकरी की उम्मीद लगाए बैठा है परिवार
आदरडीह गांव अब सरायकेला खरसावां जिले के चांडिल अनुमंडल का हिस्सा है। इसी गांव में शहीद धनंजय महतो का घर है। यहीं के माटी में वह पैदा भी हुए थे। खेल-कूदकर जवान हुए और अपनी इसी माटी के लिए शहीद भी हो गए। झारखंड बनने के बाद सबको उम्मीद थी कि दोनों शहीदों को शहादत का दर्जा मिलेगा। पर ऐसा नहीं हुआ। मुआवजे की मांग करते करते पत्नी और बच्चे की उम्र ढलती जा रही है। लेकिन सुनने के लिए कोई तैयार ही नहीं है। सरकारी नौकरी का वादा तो बस बीरबल की खिचड़ी समझिए।