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आरक्षण हम जिस डाली पर बैठे हैं उसे ही काट रह

आरक्षण को लेकर हर जाति से मांग उठ रही है, जो समाज को बांटने का काम कर रही है। कालिदास की तरह हम जिस डाल को काटना चाहते हैं उसी पर बैठे हैं, बिना सोचे कि हमारा क्या होगा। हम गरीबी, अशिक्षा, पिछड़ेपन, भ्रष्टाचार या सामाजिक प्रगति के अध्ययन के लिए मनुवादी तराजू पर ही निर्भर हैं। सामाजिक आंकलन के लिए केवल जाति या फिर धर्म का ही तराजू प्रचलित है। विभिन्न सामाजिक सरोकार नापने के लिए जाति-धर्म का घिसा-पिटा मनुवादी तराजू ही सरकार और समाज द्वारा प्रयोग में लाया जाता है और हम सोचते हैं कि जातिप्रथा हम मिटा रहे हैं। रामविलास पासवान गरीबी और पिछड़ेपन को जाति के तराजू से नापते हैं या दिग्विजय सिंह आतंकवाद को धर्म के तराजू पर तौलते हैं तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए क्योंकि दूसरा तराजू उनके पास तो है और बनाने का प्रयास करेंगे। उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान में जाट एक समृद्ध वर्ग या जाति है, गुजरात में पटेल तो वल्लभभाई के वंशज हैं और गूजर भी कमजोर नहीं हैं।

ऐसी सभी जातियां अपने को पिछड़ा कहलाने के लिए आन्दोलित हैं। जाति व्यवस्था को सशक्त बना रहे हैं। इस तराजू का प्रयोग करके अनेक जातियों का लाभ हुआ है और हो रहा है इसलिए बाकी जातियां भी लामबन्द होकर अपनी ताकत दिखाने का प्रयास कर रही हैं। अनेक जातियां हरिजन या अनुसूचित कहलाना चाहती हैं तो कुछ दूसरी जातियां पिछड़ी कहलाना चाहती हैं, और यह सब आरक्षण का लाभ उठाने के लिए। उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान में जाट एक समृद्ध वर्ग या जाति है, गुजरात में पटेल तो वल्लभभाई के वंशज हैं और गूजर भी कमजोर नहीं हैं। ऐसी सभी जातियां अपने को पिछड़ा कहलाने के लिए आन्दोलित हैं। जाति व्यवस्था को सशक्त बना रहे हैं।

दिल्ली में आरक्षण के विरोध में प्रदर्शन कर रहे लोग इस व्यवस्था को खत्म करने की मांग कर रहे हैं। फोटो पीटीआई सरकारी सोच पहले ही इस निर्णय पर पहुंच चुका है कि अनुसूचित और जनजातियां सबसे गरीब हैं। इसके बावजूद उनके बीच से एक से बढ़कर एक विद्वान, पराक्रमी और शूरवीर निकले हैं जिनकी जानकारी अब बनवाए गए स्मारकों के माध्यम से हो रही है। हमारे राजनेताओं को सामाजिक अध्ययन के लिए महर्षि मनु द्वारा बनाए गए जाति आधारित मापनी के बाहर कुछ नहीं दिखाई देता। वे भूल जाते हैं कि गरीबी, अमीरी और पिछड़ापन ना तो स्थायी होते हैं और जातियों पर निर्भर हैं,

सुदामा हर जाति और धर्म में पाए जाते हैं। केवल सरकार ही नहीं बल्कि मंडल कमीशन ने भी पाया कि अनुसूचित जातियों जनजातियों के अतिरिक्त कृष्ण और अर्जुन की जाति भी पिछड़ी है। पैमाना जाति का ही रहा और अन्य पिछड़ी जातियों को जाति आधारित सुविधाएं देना आरम्भ हो गया। जाति आधारित सम्मेलन होने लगे, चुनाव के लिए जाति आधारित टिकट मिलने लगे, इसी आधार पर मंत्री और अधिकारी बनने लगें। कितने नादान हैं ये लोग जो इस रास्ते पर चलकर जातिभेद मिटाना चाहते हैं। जाति और धर्म का तराजू गाँव और शहर दोनों में एक समान चलता है। गाँव की पंचायतों को जातीय आधार पर बांट दिया गया है और उनके चुनाव जातीय आधार पर ही होते हैं। हमारा समाज जातीय आधार पर लामबंद होता जा रहा है।

जातियों के बीच आज जो तनाव है वह गुलाम भारत में भी नहीं था। अब जातीय अभिमान जगाते हुए नारे लगते हैं, आन्दोलन होते हैं। पिछड़ापन, गरीबी और अशिक्षा का सीधा सम्बन्ध किसी क्षेत्र विशेष के संसाधनों और सुविधाओं से होता है। सुविधाएं मिलने पर सभी वर्गों के लोग शान्ति से विकास करते हैं। वास्तव में जाति और धर्म के आधार पर आंकड़े इकट्ठे करने के बजाय क्षेत्रों को इकाई मानकर अध्ययन होने चाहिए। जाति और धर्म से ध्यान हटकर क्षेत्रीय विकास पर चला जाए और यह जातीय संघर्ष और धार्मिक उन्माद से बचने का एक तरीका हो सकता है लेकिन विडम्बना है कि वोट के लिए समाज के मार्गदर्शक कर्मयोगी कृष्ण के वंशजों को पिछड़ा बता दिया और उनके द्वार पर कथा वाचक या पुरोहित के रूप में खड़े सुदामा को अगड़ा बोल दिया।