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पोलियो की चपेट के चलते 80 प्रतिशत शरीर हो गया था बेकार, फिर भी अचार बेचकर खुद के पैरों पर खड़ी है ये महिला
गुजरात राज्य के मेहसाणा में रहने वाली चेतनाबेन पटेल की उम्र उस वक्त महज 4 वर्ष ही रही होगी, जब पोलियो ने उन्हें अपनी जद में जकड़ लिया था।
किसी ने क्या खूब कहा है कि, ‘वाकिफ कहां जमाना हमारी उड़ान से, वो और थे जो हार गए आसमान से।’ कोई इंसान अपनी जिंदगी में तब तक नहीं हारता है जब तक उसके हौसले बुलंद रहते हैं। कुछ ऐसे ही बुलंद हौसले हैं गुजरात की चेतनाबेन पटेल के।
शरीर का 80 प्रतिशत भाग बचपन में ही दिव्यांग हो चुका था। बड़े होने पर दुनिया को नजदीक से देखा। इसके बाद लाचार और असहाय बनने से अच्छा उन्होंने खुद को मजबूत बनाया। इसके लिए उन्होंने कड़ी मेहनत करके अपनी एमए (मास्टर्स) तक की पढ़ाई की।
सोचा था पढ़ाई करने के बाद नौकरी मिल जाएगी। लेकिन, ऐसा नहीं हुआ। तब उन्होंने घर पर रहकर अचार और पापड़ के बिजनेस की शुरुआत की। आज चेतनाबेन ग्राहक तक स्वयं ऑर्डर पहुंचाकर अपने जैसे हजारों दिव्यंगों को जीने का मकसद सिखाने का जीता-जागता उदाहरण प्रस्तुत कर रही हैं।
चेतनाबेन पटेल
4 साल की उम्र में हो गई थीं पोलियो का शिकार
गुजरात राज्य के मेहसाणा में रहने वाली चेतनाबेन पटेल की उम्र उस वक्त महज 4 वर्ष ही रही होगी, जब पोलियो ने उन्हें अपनी जद में जकड़ लिया था। इसके बाद से तो उन्हें दो कदम भी चलना मुश्किल हो गया था। पढ़ाई के प्रति इतनी लगन थी कि वह हाथों और पैरों के सहारे चलकर करीब एक किलोमीटर की रोजाना यात्रा तय करके स्कूल जाती थीं।
वह कहती हैं, "भरोसा था कि अगर पढ़-लिख जाऊंगी तो नौकरी मिल जाएगी।"
पहले आठवीं, फिर दसवीं इसके बाद एमए तक की सारी सीढ़ियां चढ़ती रहीं, लेकिन किस्मत ने एक बार फिर उनके सामने चुनौतियां खड़ी कर दीं। पढ़ी-लिखी तो थीं लेकिन, दिव्यांग होने के चलते किसी ने उन्हें काम पर नहीं रखा।
इसके बाद उन्होंने एक एनजीओ की मदद से कंप्यूटर कोर्स किया। साल 2009 में कंप्यूटर सीखने के बाद चेतना को कंप्यूटर ऑपरेटर की नौकरी मिल गई। नौकरी से कमाएं हुए पैसों से उन्होंने स्कूटी खरीद ली।
लॉकडाउन में बढ़ गए थे ऑर्डर
एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष 2017 में चेनता को किन्हीं निजी कारणों से मेहसाणा छोड़ तरंगा जाना पड़ा। इस कारण से उनकी नौकरी भी छूट गई थी। तरंगा में बड़ी कोशिशों के बाद भी उन्हे कोई नौकरी नहीं मिली। तब उन्होंने अपनी भाभी की मदद से अचार बनाना शुरू किया।
वह कहती हैं, “लॉकडाउन में मैंने करीब दो से तीन किलो तक आम का अचार आसपास के लोगों में फ्री में बांट दिया। लोगों को मेरा अचार काफी पसंद आया। इसके बाद मुझे कई लोगों के अचार के ऑर्डर दिए। अब तो कई लोग फोन पर भी ऑर्डर देते हैं।”
अचार के साथ बनाने लगीं पापड़
चेतना का अचार का व्यापार अब धीरे -धीरे रफ्तार पकड़ चुका था। उन्होंने स्कूटी लेकर अब अपनी डिलीवरी करनी शुरू कर दी। इसके अलावा उनके पास शहर से भी ऑर्डर आने शुरू हो चुके थे, जिन्हें वह कोरियर की मदद से भेज देती हैं।
इसके अलावा अब उन्होंने अचार के साथ-साथ पापड़ बनाने भी शुरू कर दिया। चेतना भले ही शारीरिक तौर पर मजबूत न हो पर मानसिक रूप से उनके हौसले किसी चट्टान से कम नहीं हैं।