सरदार पटेल के ख़ानदान के बारे में कितना जानते हैं आप?
अगर ये सच है तो ये जानकर कोई अचरज भी नहीं होता है. सरदार को भुलाने और सरदार के साथ हुए कथित अन्याय पर हायतौबा मचाने से जुड़ी राजनीति से गौतम पटेल दूर ही रहे हैं.
सरदार पटेल के नाम पर होने वाली राजनीति पर गौतम पटेल को हमेशा से ही आपत्ति रही है. सरदार पटेल भी अपने वारिसों को राजनीति से दूर रखना चाहते थे, ये भी जगजाहिर है.
सरदार पटेल ने ये कहा था कि जब तक वो दिल्ली में हैं, तब तक उनके रिश्तेदार दिल्ली में कदम न रखें.
राजनीति में वंशवाद के विरोधी थे पटेल?
इसके पीछे कारण ये था कि वे चाहते थे, कोई उनके नाम का दुरुपयोग न करे.
अपने परिवार के साथ सरदार वल्लभभाई पटेल
लेकिन इसी बात को इतना बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया कि सरदार पटेल की मृत्यु के बाद उनकी संतानों के लंबे राजनीतिक जीवन को बिलकुल ही भुला दिया गया.
बहुत याद कराने पर शायद लोगों को ये याद आ जाए कि सरदार पटेल की बेटी मणि बेन ने साबरकांठा या मेहसाना से चुनाव लड़ा था.
सरदार पटेल एक कामयाब वकील थे और उन्होंने अपने बेटे और बेटी को अंग्रेज़ी माध्यम में शिक्षा दिलवाई थी.
पत्नी के असामयिक निधन के बाद दोनों संतानों को मुंबई में अंग्रेज़ गवर्नेस के पास छोड़कर वल्लभभाई पटेल बैरिस्टर बनने के लिए इंग्लैंड चले गए थे.
वहां से लौटने के बाद उनकी वकालत बहुत अच्छी चमक गई थी.
लेकिन महात्मा गांधी के चंपारण सत्याग्रह ने उन्हें सोचने को मजबूर कर दिया और इससे सरदार के जीवन की दिशा बदल गई.
धीरे-धीरे वो गांधी से जुड़े और अपना सबकुछ उन्होंने आंदोलन में झोंक दिया.
डाया भाई पटेल
मणि बेन अपने सार्वजनिक जीवन में पिता के ही मार्ग पर चलती रहीं लेकिन उनके भाई डाया भाई ने अलग रास्ता चुना.
साल 1939 में पहली बार वो बॉम्बे म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन के सदस्य के तौर पर चुने गए और वे 18 साल तक निगम के सदस्य बने रहे.
इसमें छह साल तक वे कांग्रेस के नेता के तौर पर रहे और 1944 में बॉम्बे के मेयर भी बने.
राष्ट्रीय राजनीति में डाया भाई का प्रवेश 1957 में होना था.
उन्होंने अपनी किताब की प्रस्तावना में लिखा है. "साल 1957 के चुनाव में कांग्रेस की तरफ़ से लोकसभा की सीट के लिए मैं चुनाव लड़ने के लिए तैयार हूं. इस सिलसिले में मैंने एक ख़त गुजरात प्रदेश कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष को लिखा है. गुजरात प्रदेश कांग्रेस के प्रमुख मुझसे मिलने के लिए मेरे घर आए थे और मुझे चुनाव लड़वाने के लिए आतुरता दिखाकर मुझे चिट्ठी लिखने को कहा."
वल्लभभाई पटेल अपने परिवार के साथ
लेकिन उसके बाद 1957 की जनवरी में इंदौर में हुए कांग्रेस अधिवेशन में डाया भाई को लगा पंडित नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस सरदार पटेल की विरासत को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है. इसलिए उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी.
ये वो समय था जब महागुजरात आंदोलन ज़ोर पकड़ रहा था उन दिनों आगे रहने वाले नेताओं में इंदुलाल याग्निक और अन्य नेताओं ने मिलकर महागुजरात जनता परिषद के नाम से पार्टी बनाई थी.
इंदुलाल याग्निक ने डाया भाई से परिषद के उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ने का आग्रह किया.
डाया भाई ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, "मणि बेन ने नम आंखों से मुझसे कहा कि पिता जी की मौत हो गई है तो तुम कांग्रेस के ख़िलाफ़ कैसे चुनाव लड़ सकते हो."
भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के साथ सरदार वल्लभभाई पटेल
अपनी बहन के इस तरह के बोल से वे काफ़ी आहत हुए थे. हालांकि उन्होंने चुनाव नहीं लड़ने का फैसला कर लिया था.
लेकिन बाद में साल 1958 में वे महागुजरात जनता परिषद के सदस्य के तौर पर राज्यसभा के सदस्य बने.
साल 1959 में स्वतंत्र पार्टी की स्थापना हुई. तब सरदार पटेल के करीबी और विश्वासपात्र भाई काका जैसे साथी स्वतंत्र पार्टी में शामिल हो गए और डाया भाई भी उनसे जुड़ गए.
साल 1964 में वे स्वतंत्र पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर राज्यसभा के लिए चुने गए.
इसके बाद वे 1958 से वे तीन बार राज्यसभा में रहे और 1973 में उनकी मौत हो गई. उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कहा था कि संसद में हमने पुराने साथी और दोस्त को खो दिया है.
स्वतंत्र पार्टी के सदस्यों ने डाया भाई को पहले अंग्रेज़ सरकार और फिर लोकतंत्र, आज़ादी और मुक्त व्यापार के लिए लड़ने वाले योद्धा के तौर पर याद किया था.
भानुमति बेन पेटल और पशा भाई पटेल
डाया भाई पटेल राज्यसभा के सांसद थे, इसलिए साल 1962 के लोकसभा चुनाव में स्वतंत्र पार्टी ने उनकी पत्नी भानुमति बेन पटेल को भावनगर और डाया भाई के साले उद्योगपति पशा भाई पटेल को साबरकांठा से चुनाव में खड़ा किया था.
भावनगर सीट पर कांग्रेस, प्रजा समाजवादी पार्टी और स्वतंत्र पार्टी के बीच त्रिकोणीय मुकाबला हुआ था जिसमें स्वतंत्र पार्टी की बुरी तरह से हार हुई.
इस चुनाव में भानुमति बेन को सिर्फ़ 14,774 वोट मिले थे. उनके भाई पशा भाई पटेल भी चुनाव हारे लेकिन उनकी हार इतनी बुरी नहीं रही.
साबरकांठा सीट से पशा भाई पटेल के सामने केंद्रीय मंत्री गुलज़ारीलाल नंदा चुनाव लड़ रहे थे. पशा भाई पटेल ने गुलज़ारी लाल नंदा को कड़ी टक्कर दी और 24609 वोट से चुनाव हारे थे.
पशा भाई पटेल का ये पहला और आख़िरी चुनाव नहीं था. साल 1957 में वे लोकसभा चुनाव में वो वडोदरा में वहां के राजघराने के फ़तेह सिंह राव गायकवाड़ से हार गए थे.
मणिबेन पटेल की राजनीति
अपने भाई से अलग रहकर चलने वाली मणिबेन पटेल का राष्ट्रीय राजनीति में प्रवेश डाया भाई से पहले हो चुका था.
स्वतंत्र भारत के पहले लोकसभा चुनाव में उन्होंने खेड़ा (दक्षिण) सीट पर 59298 मतों से जीत दर्ज की थी.
साल 1957 में जब डाया भाई ने कांग्रेस छोड़ी तब तक मणिबेन के लिए अपने पिता की पार्टी छोड़ने का विचार भी असहनीय था. 1957 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने आणंद सीट से जीत हासिल की थी.
गुजरात के अलग राज्य बनने के बाद 1962 के लोकभा चुनाव में उन्होंने महागुजरात आंदोलन में कांग्रेस की भूमिका के कारण जनता के बीच कांग्रेस के ख़िलाफ़ माहौल बना हुआ था.
ऐसे में आणंद सीट पर कड़वाहट भरा माहौल बना हुआ था.
एक तरफ़ कांग्रेस की उम्मीदवार मणिबेन थीं तो दूसरी तरफ़ उनका मुकाबला सरदार पटेल के ख़ास साथी वल्लभ विद्यानगर के संस्थापक भाई काका की स्वतंत्र पार्टी से था.
स्वतंत्र पार्टी के उम्मीदवार नरेंद्र सिंह महेड़ा ने इस चुनाव में मणिबेन को हरा दिया. साल 1964 में कांग्रेस ने उन्हें राज्यसभा भेजा जहां वे 1970 तक इसकी सदस्य रहीं.
साल 1973 में मणिबेन ने साबरकांठा सीट से उपचुनाव जीता और लोकसभा में वापस लौटीं.
इससे पहले कांग्रेस के दो फाड़ हो चुकी थी. मणिबेन ने इंदिरा गांधी की कांग्रेस के बजाय मोरारजी देसाई जैसे पुराने कांग्रेसियों के साथ जाना पसंद किया था.
साबरकांठा से मणिबेन की जीत कांग्रेस (ओ) के लिए एक बड़ी कामयाबी थी.
इमरजेंसी के बाद साल 1977 में मणि बेन ने मेहसाना सीट से चुनाव लड़ा और कांग्रेस विरोधी लहर में एक लाख से ज़्यादा वोटों से जीत दर्ज की.
मणि बेन ने अपने जीवन के आख़िरी साल अहमदाबाद में बिताए.
महात्मा गांधी से जुड़ी कई संस्थाओं से उनका संपर्क अंत तक बना रहा और साल 1990 में उनका निधन हो गया.
विपिन भाई और गौतम भाई
मणि बेन तो आजीवन अविवाहित रहीं. डाया भाई का विवाह यशोदा बेन के साथ हुआ था.
यशोदा बेन के निधन के समय डाया भाई 27 साल के थे. भानुमति बेन उनकी दूसरी पत्नी थी जिनसे उनके दो बेटे हुए. विपिन और गौतम पटेल.
सरदार पटेल के पोते गौतम पटेल
ये दोनों भाई राजनीति से दूर रहे. यहां तक कि सरदार पटेल के नाम पर होने पर राजनीति से भी उन्होंने खुद को हमेशा दूर रखा.
साल 1991 में जब सरदार पटेल को मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया तो उनके पोते विपिन भाई सम्मान लेने गए थे.
विपिन भाई पटेल के निधन के बाद गौतम भाई पटेल सरदार पटेल के निकट संबंधियों में रह गए हैं.
गौतम भाई भारत में सरदार पटेल की विरासत और उससे जुड़ी शोहरत से हमेशा से दूर रहे हैं.
उनसे मिलने का मौका मुझे साल 1999 में मिला था.
शारीरिक डील डौल में सरदार पटेल की याद दिलाते गौतम भाई और उनकी पत्नी नंदिनी बेहद सरल लोग जान पड़ते थे.
Kurmi World समाज की अनमोल धरोहर की यादों को ताज़ा करने का एक प्रयत्न हैं। हम आपके विचारों और सुझावों का स्वागत करते हैं। हमारे साथ किसी भी तरह से जुड़े रहने के लिए हमें kurmiworld.com@gmail.com पर लिखे, या +91 9918555530 पर संपर्क करे।
अगर आपको यह आर्टिकल अच्छा लगा हो, तो इसे अपने दोस्तों के साथ शेयर जरूर करें।