संदुर: एक खोयी हुई रियासत
क्या आपको पता है कि कर्नाटक में हम्पी से 40 कि.मी. दूर एक रियासत हुआ करती थी जिसका नाम था संदुर और जिसके ध्वज पर गोह (monitor lizard) बना हुआ था? दिलचस्प बात ये है कि शाही परिवार का नाम भी इसी गोह पर रखा गया था। इस परिवार का मराठाओं से गहरा नाता था। क्या है क़िस्सा, ये हम आपको बताने जा रहे हैं।
सिन्दूर ध्वज | विकिमीडिया कॉमन्स
सन 1303 में अलाउद्दीन ख़िलजी ने प्रसिद्ध क़िले चित्तौड़ पर कब्ज़ा कर लिया था। इसके तीस साल बाद सिसोदिया वंश के सुजान सिंह राजस्थान छोड़कर दक्कन आ गए। सन 1470 में सुजान सिंह के दो वंशज कर्ण सिंह और उनके पुत्र भीम सिंह ने बहमनी सुल्तान के लिये विशालगढ़ पर कब्ज़ा कर लिया। क़िले पर कब्ज़े के लिये इन्होंने गोह का इस्तेमाल किया था जो दीवार पर आसानी से चढ़ जाती है। गोह की मदद से दीवार फ़ांदने के बाद वे दुर्ग में दाख़िल हो गये और वहां से मुख्य द्वार खोल दिये। इस कार्रवाई में कर्ण सिंह मारा गया था लेकिन भीम सिंह ने मिशन पूरा किया और इसके लिये उन्हें सुल्तान ने राजा घोरपड़े बहादुर के ख़िताब से नवाज़ा। कर्ण सिंह और भीम सिंह ने तेलंगाना, उड़ीसा, गुजरात, मालवा और कोंकण पर बहमनी के हमलों में भी अहम भूमिका निभाई थी।
भोसले परिवार कर्ण सिंह के भाई शुभ कृष्ण का वंशज है। विशालगढ़ पर कब्ज़े के 150 साल बाद इसी परिवार में छत्रपति शिवाजी का जन्म हुआ था। शुभ कृष्ण 1458 में महाराष्ट्र में अपनी जागीर देवगिरी लौटने के पहले बहमनी साम्राज की सेवा में थे। इस तरह घोरपड़े और भोसले का काफ़ी क़रीबी नाता रहा है लेकिन ये नाता ख़ून के रिश्तों से कहीं अधिक गहरा था।
16वीं शताब्दी में म्हालोजी घोरपड़े, भोसले वंश की तीन पीढ़ियों-शाहजी, शिवाजी और संभाजी के जनरल रहे थे। सन 1687 में उन्हें मराठा साम्राज का सेनापति नियुक्त किया गया था। संगमेश्वर के युद्ध में अपने राजा संभाजी को बचाते हुए उन्होंने अपने प्राण दे दिये थे। उनके बाद उनके पुत्र संताजी, बहीरजी और मलोजी ने पूरी निष्ठा और बहादुरी से मराठा साम्राज की सेवा की। सन 1689 में मुग़लों ने रायगढ़ पर कब्ज़ा कर लिया था और संभाजी की पत्नी यसुबाई और पुत्र शाहु को गिरफ़्तार लिया था। इसके बाद संताजी और बहीरजी ने शिवाजी के दूसरे पुत्र राजाराम को जिंजी क़िले में सुरक्षित पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई थी।
इतिहासकार जी.एस. सरदेसाई अपनी किताब मराठी रियासत में लिखते हैं- ‘रायगढ़ क़िले से दबाव हटाने के लिए घोरपड़े भाईयों ने दो हज़ार घुड़सवारों के साथ कोरेगांव में औरंगज़ेब के कैंप पर हमला बोल दिया और शहंशाह के शामियाने के ऊपर लगा सोने का गुंबद तोड़ दिया। इस हमले में उनका बाल भी बांका नहीं हुआ और वापस लौटकर उन्होंने रायगढ़ को घेरे बैठी मुग़ल सेना पर धावा बोलकर पांच हाथी पकड़ लिये थे। इसके बाद वे प्रतापगढ़ में संभाजी के उत्तराधिकारी राजाराम के पास चले गए।’
रायगढ़ किला खंडहर | विकिमीडिया कॉमन्स
बहादुरी के इस कारनामे से मराठा सेना का मनोबल बढ़ गया था। राजाराम ने इस बहादुरी के लिये संतजी को मामालाकाटमदर ( ममलेकत मदार यानी राज्य की धुरी) , बहीरजी को हिंदुराव और मालोजी को अमीर-उल-उमराव का ख़िताब दिया था।
संताजी ,बादशाह औरंगज़ेब के ख़िलाफ़ विद्रोह के हीरो थे। औरंगज़ेब ने दक्कन में 26 साल तक डेरा डाले रखा था, लेकिन फिर भी दक्षिण पर कब्ज़ा करने में नाकाम रहा था । आख़िरकार सन 1707 औरंगज़ैब की मृत्यु हो गई। बहीरजी ने गूटी में एक स्वायत्त रियासत स्थापित की थी। उनके पुत्र सिद्दोजी ने 18वीं शताब्दी के आरंभ में कर्नाटक में गूटी और संदुर रियासत को और मज़बूत किया। उनके बाद सबसे बड़े पुत्र मुरारीराव ने इस काम को आगे बढ़ाया।
गूटी का किला | विकिमीडिया कॉमन्स
संदुर
सन 1761 में पानीपत के युद्ध में मराठों की करारी हार के साथ दक्कन में हैदर अली का भी उद्भव हुआ। लेकिन पेशवा माधवराव ने मुरारीराव का भरपूर इस्तेमाल किया जिनके साथ माधवराव की अच्छी बनती थी। मुरारी के साथ मिलकर माधवराव ने हैदर अली पर कई हमले बोले। लेकिन माधवराव के निधन के बाद दक्कन में मराठाओं की नीति बिखर गई और इस संकट की घड़ी से मुरारीराव को अकेले निबटना पड़ा। आख़िरकार सन 1776 में हैदर अली को गूटी पर कब्ज़ा करने में सफलता मिल ही गई। मुरारीराव को कब्बाला दुर्ग में क़ैद कर दिया गया और सन 1777 में उनकी निर्मम हत्या कर दी गई।
उपस्थित लोगों के साथ सैंडुर के राजकुमार। सी। 1880 | विकिमीडिया कॉमन्स
हैदर अली ने संदुर सहित पूरे क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लिया और कृष्णानगर क़िला बनवाया। बाद में हौदर अली के पुत्र टीपू ने यहां राज किया।
मुरारीराव के दो पुत्र थे लेकिन दोनों की बचपन में ही मौत हो गई। इसके बाद मुरारीराव ने दूर के रिश्तेदार शिवा राव को गोद ले लिया। सन 1785 में शिवा राव की भी संदुर से टीपू को खदेड़ने के प्रयास के दौरान मृत्यु हो गई। शिवा राव के बाद उनके पुत्र सिद्दोजी उनके उत्तराधिकारी बने जो उस समय सिर्फ़ दो साल के थे। सिद्धोजी की देखरेख उनके चाचा वेंकटराव करते थे जिन्होंने सन 1790 में सिद्धोजी के कहने पर टीपू की सेना को खदेड़ दिया और महल पर कब्ज़ा कर लिया। सन 1792 में घोरपड़े की टीपू के साथ सुलह हो गई और परिवार की धरोहर के रुप में संदुर उन्हें सौंप दिया गया लेकिन टीपू के ज़िंदा रहते घोरपड़े कुल का कोई व्यक्ति संदुर में नहीं रहा। सन 1798 में 13 साल की उम्र में सिद्धोजी का देहांत हो गया और उनकी विधवा पत्नी ने शिवा राव को गोद ले लिया। सन 1799 में श्रीरंगपटनम हारने के बाद टीपू की मौत हो गई और शिवा राव वेंकट राव के साथ संदुर चले गए। ईस्ट इंडिया कंपनी में बेल्लारी ज़िले के मिलने के बाद शिव राव जागीरदार बन गए।
उसी समय पेशवा बाजीराव ने जसवंत राव को एक रियासत दे दी जो उनके रिश्तेदार थे और सिंधिया की सेना में अफ़सर थे। लेकिन उपहार में मिली रियासत को कोई महत्व नहीं दिया गया और रियासत पर शिवा राव का ही दबदबा बना रहा। पेशवा दरअसल शिवा राव को बाग़ी जागीरदार मानते थे। सन 1815 में पेशवा ने कुमारास्वामी की तार्थयात्रा के बहाने संदुर पर कब्ज़े के लिये सेना के साथ कूच किया लेकिन शिवा राव ने रास्ता रोक लिया। बाद में बाजीराव को कुछ सहायकों के साथ पहाड़ी की पगडंडियों के ज़रिये मंदिर तक जाने दिया गया।
भारत में सैंडूर घाटी का पश्चिमी दर्रा | विकिमीडिया कॉमन्स
पेशवा और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच एक संधि हुई थी जिसके तहत अंग्रेज़ों को बग़ावत के दौरान पेशवा की मदद करना अनिवार्य था। पेशवा ने अंग्रेज़ों से शिवा राव से संदुर लेने को कहा। घाटी पर कब्ज़े के लिये धारवाड़ से सर थॉमस मनरो सेना लेकर रवाना हो गए लेकिन शिवा राव ने बिना प्रतिरोध के इस्तीफ़ा दे दिया और बदले में उन्हें बेल्लारी ज़िले में एक रियासत मिल गई। इसके फ़ौरन बाद पेशवा ने अंग्रेज़ों के साथ दोस्ती तोड़ दी और युद्ध छेड़ दिया जो सन 1818 तक चला। इसके साथ ही उनके शासन का भी पतन हो गया। इसके बाद मनरो ने संदुर को दोबारा शिवा राव को देने का आदेश दिया जिसे सरकार ने स्वीकार भी कर लिया। सन 1826 में मद्रास सरकार ने शिवा राव को औपचारिक रुप से राज्य की संसद दे दी।
इस छोटे से राज्य का इतिहास ख़ामोश ही रहा हालंकि 19वीं शताब्दी के अंत और 20वीं शताब्दी के आरंभ में यहां के शासकों ने प्रगतिशील नीतियां अपनाईं। प्रशासन, न्यायपालिका, राजनीतिक तथा सामाजिक क्षेत्रों में सुधार ने कांग्रेसी नेताओं सहित सभी का ध्यान खींचा। ये उन पहले राज्यों में से था जिसने सभी जातियों के लिये मंदिर के दरवाज़े खोले और सभी के लिये शैक्षिक संस्थान बनाये।
10 अगस्त 1947 में राजा यशवंतराव ने भारत के साथ अंगीकार पत्र पर हस्ताक्षर किये और सन 1949 में अपने राज्य का मद्रास में विलय करवा दिया। भाषाई आधार पर सीमा तय करने के बाद ये सन 1956 में मैसूर का हिस्सा बन गया।
आज जो भी संदुर जाता है उसे वहां से सुंदर कुमारास्वामी मंदिर (8वीं-10वीं शताब्दी) नज़र आता है। माना जाता है कि दक्षिण भारत में ये मंदिर भगवान कार्तिके का पहला निवास स्थान था।
पार्वती मंदिर के साथ कुमारस्वामी मंदिर | विकिमीडिया कॉमन्स
संदुर से 18वीं शताब्दी में हैदर अली और उनके पुत्र टीपू सुल्तान द्वारा बनवाए गए कृष्णानगर क़िले के अवशेष भी दिखाई पड़ते हैं।