उत्तर प्रदेश में पटेल पावर: कुर्मी वोट बैंक की बढ़ती राजनीतिक ताकत, अबकी बार 2027 में कुर्मी विचार?

उत्तर प्रदेश में पटेल पावर – सियासत की चाबी बनते कुर्मी वोटर

उत्तर प्रदेश की राजनीति में ‘पटेल पावर’ यानी कुर्मी वोट बैंक की अहमियत दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। आज़ादी के बाद से लेकर 2024 के चुनावों तक यह समुदाय निर्णायक भूमिका में रहा है। चाहे भारतीय जनता पार्टी हो, समाजवादी पार्टी हो या बहुजन समाज पार्टी – हर दल इस ताकतवर समुदाय को अपने पक्ष में करने की हरसंभव कोशिश करता दिख रहा है।

उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में खेती-किसानी से जुड़ा पटेल/कुर्मी समाज बड़ी संख्या में मौजूद है। इलाहाबाद (प्रयागराज), प्रतापगढ़, कौशांबी, फतेहपुर, बांदा, चित्रकूट, बलरामपुर, फैजाबाद, अम्बेडकर नगर, बाराबंकी, सुल्तानपुर, वाराणसी, जौनपुर, बरेली और कई अन्य जिलों में कुर्मी वोटर्स की संख्या लाखों में है।

उदाहरण के तौर पर, प्रयागराज जिले की नौ विधानसभा सीटों में औसतन 50,000 से 90,000 तक कुर्मी मतदाता हैं। प्रतापगढ़ जिले की कुंडा, रामपुर खास और बाबागंज जैसी सीटों पर यह संख्या 70,000 से अधिक है। वाराणसी में तो सेवापुरी, पिंडरा, शिवपुर और रोहनिया सीटों पर अकेले एक लाख से ज्यादा कुर्मी वोटर हैं।

इतनी बड़ी संख्या में मौजूदगी के बावजूद यह सवाल बना हुआ है कि क्या वजह है जो यह समाज अपनी राजनीतिक उपस्थिति को निर्णायक रूप में नहीं बदल पा रहा? विश्लेषण करें तो यह समाज अनेक उप-जातियों में बंटा हुआ है – जैसे वर्मा, पटेल, सचान, गंगवार, चौधरी, कटियार, पाटीदार आदि – जिसके कारण व्यापक एकजुटता नहीं बन पाई।

हालांकि, मंडल आयोग के बाद इस समाज में राजनीतिक चेतना का प्रसार हुआ। डॉ. सोनेलाल पटेल द्वारा "अपना दल" की स्थापना इसका बड़ा उदाहरण है। 2014 में नरेंद्र मोदी ने कृष्णा पटेल से गठबंधन कर वाराणसी में राजनीतिक समीकरण ही बदल दिए थे। यह बताता है कि अगर कुर्मी समाज एकजुट होकर वोट करे तो वह किसी भी दल की जीत-हार तय कर सकता है।

आज की स्थिति यह है कि कुर्मी वोटर यूपी की कई सीटों पर ‘विनिंग शॉट’ देने की स्थिति में है। सवाल यह है – क्या अब यह समाज राजनीतिक रूप से एकजुट होकर निर्णायक भूमिका निभाएगा?