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आदिवासी क्यों बनना चाह रहे हैं झारखंड के कुर्मी

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आदिवासियों की सूची में शामिल करने की मांग को लेकर झारखंड में कुर्मी/कुड़मी समुदाय का आंदोलन ज़ोर पकड़ता जा रहा है. इसी मुद्दे पर 'कुर्मी विकास मोर्चा' समेत कई संगठनों ने सोमवार को झारखंड बंद का आह्वान किया है. मोर्चे का दावा है कि बंद असरदार होगा.

इससे पहले जनवरी महीने में मोर्चे के बैनर तले रांची मे आयोजित रैली में कुर्मियों की बड़ी तादाद जुटी थी. उसी रैली में सत्ता-विपक्ष से कुर्मी समुदाय के कई कद्दावर नेता भी शामिल थे.

इधर कुर्मियों/कुड़मियों की इस मांग के विरोध में आदिवासी संगठन और अन्य समुदाय भी बड़े दायरे की गोलबंदी में जुटे हैं.

दरअसल, झारखंड में कुर्मियों के अलावा तेली जाति के लोग भी अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल करने की आवाज़ उठाते रहे हैं.

लिहाज़ा रैलियों, बैठकों, विरोध-प्रदर्शन और जुलूस का सिलसिला जारी है. साथ ही इस मुद्दे पर पार्टी लाइन से हटकर सत्ता-विपक्ष के दर्जनों नेता भी खुलकर शामिल होने लगे हैं.

हाल ही में राज्य के 42 विधायकों तथा दो सांसदों (सत्ता-विपक्ष) ने मुख्यमंत्री को एक पत्र सौंप कर कुर्मी/कुड़मी समुदाय को अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल करने के लिए आवश्यक पहल करने पर ज़ोर दिया है.

जबकि आदिवासी संगठन और उनके प्रतिनिधि इन कोशिशों का प्रत्यक्ष तौर पर विरोध करने लगे हैं.

कुर्मी समुदाय का तर्क क्या

कुर्मी विकास मोर्चा के केंद्रीय अध्यक्ष शीतल ओहदार का कहना है कि 'जनवरी महीने में हुई रैली में कुर्मियों ने सरकार को आगाह किया था कि राज्य मंत्रिपरिषद की बैठक में इस मुद्दे पर मंज़ूरी प्रदान कर आगे की कार्रवाई के लिए केंद्र सरकार के पास भेजा जाए, लेकिन सरकार ने कोई पहल नहीं की. इसलिए झारखंड बंद बुलाना पड़ा.'

उनका ज़ोर है कि साल 1931 तक कुर्मी/कुड़मी आदिवासी की सूची में शामिल थे, जिसे बाद में हटा दिया गया. वे लोग अपना हक़ और अधिकार चाहते हैं. यही वजह है कि अब बड़ी तादाद में महिलाएं भी अपनी मांगों को लेकर सड़कों पर निकल रही हैं.

सियासी महत्व

कुर्मी विकास मोर्चा के मीडिया प्रभारी ओम प्रकाश महतो का कहना है कि सरकार इस मुद्दे पर गंभीरता दिखाए, वरना वे लोग आर्थिक नाकेबंदी करेंगे और राज्य से खनिज बाहर जाना ठप कर देंगे.

ग़ौरतलब है कि झारखंड में कुर्मी/कुड़मी समुदाय की क़रीब सोलह फ़ीसदी आबादी है और राजनीतिक तथा सामाजिक तौर पर इनकी ताक़त भी रही है.

जानकार मानते हैं कि यह बड़ी वजह हो सकती है कि सत्ता-विपक्ष के कुर्मी नेता इस मांग पर आवाज़ उठाने लगे हैं तथा रैलियों-सभाओं में शामिल होने लगे हैं. जनवरी में आयोजित रैली में कई बड़े कुर्मी नेताओं के शामिल होने के यही मतलब निकाले जाते रहे हैं.

हालांकि, कुर्मी विकास मोर्चा के केंद्रीय सचिव रामपोदो महतो कहते हैं कि राजनीतिक दलों ने इस समुदाय को छलने का काम किया है. इसलिए वे लोग आर-पार की लड़ाई लड़ने के लिए तैयार हैं.

ग़ौरतलब है कि 81 सदस्यीय झारखंड विधानभा में 2014 के चुनाव में कुर्मी समुदाय के आठ विधायकों ने जीत दर्ज की थी जबकि लोकसभा की 14 सीटों में बीजेपी से दो सांसद क्रमशः रामटहल चौधरी तथा विद्युतवरण महतो चुनाव जीते थेविधायकों में आजसू पार्टी के चंद्रप्रकाश चौधरी अभी सरकार में मंत्री हैं और वह भी कुर्मी को आदिवासी की सूची में शामिल करने की वकालत करते रहे हैं.

 

आदिवासियों का विरोध

हालांकि, जनवरी में कुर्मियों की रैली के बाद आदिवासी संगठनों के भी कान खड़े हो गए और पिछले दस मार्च को 'आदिवासी युवा शक्ति' समेत कई आदिवासी संगठनों ने रांची में आक्रोश रैली निकाली तथा ऐसी किसी भी कोशिश को सफ़ल नहीं होने देने की हुंकार भरी.

आदिवासी संगठनों के प्रतिनिधियों का इस बात पर ज़ोर है कि जनजातियों को मिले आरक्षण पर कुर्मियों की नज़र है. झारखंड मे आदिवासियों के लिए विधानसभा की 28 तथा लोकसभा की चार सीटें आरक्षित हैं.

आदिवासियों को 26 फ़ीसदी आरक्षण हासिल है जबकि कुर्मी पिछड़ा वर्ग में शामिल हैं इस वर्ग को 14 प्रतिशत आरक्षण प्राप्त है. साथ ही पिछड़ा वर्ग में अन्य कई जातियां शामिल हैं.

आदिवासी जन परिषद के केंद्रीय संयोजक प्रेमशाही मुंडा का कहना है कि 'कुर्मियों को क्या कभी सरना कोड की मांग करते देखा गया, जबकि झारखंड में आदिवासी इस कोड की मांग को लेकर लंबे समय से आंदोलन करते रहे हैं. इस कोड के ज़रिए आदिवासी जनगणना में सरना कॉलम दर्ज करना चाहते हैं, ताकि अलग से उनकी पहचान सुरक्षित रह सके.'

प्रेमशाही मुंडा इस बात पर ज़ोर देते हैं कि 'कुर्मियों से आदिवासियों के सामाजिक सरोकार अच्छे रहे हैं, लेकिन उनकी इस मांग के पीछे आरक्षण पर सीधी नज़र है. और यह कोशिश आदिवासी सफल होने नहीं देंगे.'

शिवा कच्छप कहते हैं कि 'आदिवासी तो पहले से हक़ पाने के लिए तथा सरकार की नीति-नीयत के ख़िलाफ़ संघर्ष करते रहे हैं और अब इस मुद्दे को हवा देकर हमें आहत किया जा रहा है.'

युवा आदिवासी संगठनों संजय पाहन, शशि पन्ना सरीखे प्रतिनिधियों का कहना है कि जल, जंगल, ज़मीन के सवाल पर दशकों से आंदोलन करते रहे आदिवासी कुर्मियों की इन मांगों से उद्वेलित हैं. यह तो प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर उनके संवैधानिक अधिकारों पर सेंधमारी की कोशिश हैइसलिए आदिवासी संगठनों ने 42 विधायकों द्वारा मुख्यमंत्री को पत्र सौंपे जाने का भी कई मंचों से विरोध किया है.

रैली दर रैली

इधर 29 अप्रैल को रांची में कुड़मियों के महाजुटान की तैयारी चल रही है. इसमें सभी दलों के नेताओं को शामिल होने के लिए न्योता दिया जा रहा है. जबकि बीजेपी सांसद रामटहल चौधरी, विद्युतवरण महतो, पूर्व सांसद शैलेंद्र महतो सरीखे नेता इस जुटान को असरदार बनाने की कोशिशों में जुटे हैं.

इसी तैयारी में जुटे राजाराम महतो कहते हैं कि अब यह मांग जनआंदोलन का रूप धारण कर चुकी है. वह कहते हैं कि कुड़मी के आदिवासी बनने से ही झारखंड छठी अनुसूची में शामिल हो सकेगा. उनका ज़ोर है कि झारखंड के कुड़मी और आदिवासी सामाजिक तौर पर आपस में पहले से रचे-बसे हैंलेकिन आदिवासियों को इन बातों पर यक़ीन नहीं और वे इससे इत्तेफ़ाक भी नहीं रखते. इसलिए 29 अप्रैल को कुड़मी महाजुटान से पहले 32 आदिवासी जाति रक्षा समन्वय समिति ने रांची में रैली का एलान किया है. पूर्व मंत्री देवकुमरा धान कहते हैं कि सरकार कोई भी क़दम उठाने से पहले आदिवासियों की भावना को समझे.

इन हालात में राजनीतिक जानकार इसे इनकार नहीं कर रहे कि चुनावों में इस मुद्दे को अपने-अपने स्तर पर भुनाने से भी दलों के लोग कोई कसर नहीं छोड़ेंगे. जबकि ये मांग और विरोध कौन-सा नया मोड़ अख़्तियार करता है, इसे आगे ही देखा जा सकता है.