62 साल पहले बिहार का मुख्यमंत्री बनने से चूक गया वो कुर्मी नेता

बिहार में 1963 में ही कुर्मी नेता मुख्यमंत्री बन गये होते, लेकिन कांग्रेस की जातीय राजनीति और भीतरघात के कारण यह संभव नहीं हो पाया। अगर ऐसा होता तो पहली बार कोई पिछड़ा नेता बिहार के सत्ता सिंहासन पर बैठता। इसका श्रेय कांग्रेस को मिलता। यह एक दूरगामी प्रस्ताव था, क्योंकि इसके जरिये कांग्रेस पिछड़े वर्ग में पैठ बना सकती थी। अगर कांग्रेस का पिछड़े वर्ग में प्रभाव कायम हो जाता तो उस दौर में समाजवादी दल इतनी मजबूत स्थिति में नहीं होते। लेकिन कांग्रेस ने यह मौका गंवा दिया। नतीजे के तौर पर 1967 में हार झेलनी पड़ी।
 

वीरचंद पटेल को हराने के लिए गुटबंदी

अक्टूबर 1963 में ‘कामराज योजना’ के तहत मुख्यमंत्री विनोदानंद झा ने इस्तीफा दे दिया। इस्तीफा देने के बाद विनोदानंद झा ने मुख्यमंत्री पद के लिए वीरचंद पटेल का नाम आगे बढ़ाया। वीरचंद पटेल कुर्मी जाति से थे और वैशाली के लालगंज से विधायक थे। उस समय कांग्रेस पार्टी कई गुटों में बंटी हुई थी। विनोदानंझ झा गुट, केबी सहाय गुट, महेश प्रसाद सिन्हा गुट, सत्येन्द्र नारायण सिंह गुट। राजनीतिक लाभ के लिए ये गुट आपस में टकराते रहते थे। रामलखन सिंह यादव, यादवों के बड़े नेता थे। सुशील कुमार बागे आदिवासियों के अगुआ थे। जब वीरचंद पटेल का नाम मुख्यमंत्री पद के लिए आगे आया तो सहाय गुट, महेश गुट और सत्येन्द्र गुट ने इसका विरोध कर दिया। विनोदानंद झा के विरोधी गुट एक हो गये। केबी सहाय सत्ता पर खुद नियंत्रण चाहते थे।
 

भीतरघात से हारे पटेल, जीते केबी सहाय

झा गुट के वीरचंद पटेल को हराने के लिए सभी सवर्ण गुट एक हो गये। केबी सहाय, महेश प्रसाद सिन्हा, सत्येन्द्र नारायण सिंह ने आपसी मदभेद के बाद भी हाथ मिला लिया। यह एक आश्चर्यजनक घटना थी जब कायस्थ, भूमिहार और राजपूत किसी राजनीतिक मकसद के लिए एक हुए। रामलखन सिंह यादव पिछड़ी जाति से थे, उन्हें वीरचंद पटेल का समर्थन करना चाहिए था। लेकिन वह भी सवर्ण गुट की तरफ चले गये। यहां तक कि अनुसूचित जाति के नेता भोला पासवान शास्त्री भी केबी सहाय गुट से मिल गये। आदिवासी नेता सुशील कुमार बागे ने सहाय का साथ देने की घोषणा कर दी। वीरचंद पटेल इस गोलबंदी से पार नहीं पा सके। उस समय विनोदानंद झा ने कांग्रेस के लिए दूर की कौड़ी फेंकी थी। लेकिन उस समय जवाहर लाल नेहरू राजनीति में पिछड़ावाद के महत्व का अंदाजा नहीं लगा सके। उन्होंने कोई हस्तक्षेप नहीं किया। गुटों के गठजोड़ से केबी सहाय मुख्यमंत्री बनने में कामयाब रहे।
 

मंत्रिपरिषद में ज्यादा हिस्सेदारी के लिए झगड़ा

अब मंत्रिमंडल के गठन का सवाल आया। अधिक से अधिक हिस्सेदारी के लिए फिर झगड़ा शुरू हुआ। वीरचंद पटेल ने तीन कैबिनेट मंत्री पद की मांग कर दी। सहाय 27 सदस्यीय मंत्रिपरिषद बनाना चाहते थे। मामला बिगड़ता देख कर केबी सहाय और वीरचंद पटेल को दिल्ली बुलाया गया। जब दोनों पक्ष अपनी अपनी बात पर अड़े रहे तो कांग्रेस नेतृत्व ने तय कर दिया कि सहाय मंत्रिपरिषद में कुल 20 सदस्य होंगे। केबी सहाय और वीरचंद पटेल इस बात पर मान गये।

2 अक्टूबर 1963 के सहाय मंत्रिपरिषद का शपथग्रहण हुआ तो एक बार फिर खेल हो गया। झा गुट से केवल वीरचंद पटेल और हरनाथ मिश्रा को कैबिनेट मंत्री बनाया गया। हरनाथ मिश्र दरभंगा के बहेड़ा से विधायक थे। झा गुट से किसी को राज्यमंत्री नहीं बनाया गया। वीरचंद पटेल ने तीन राज्यमंत्री पद की मांग की थी, जो नहीं मानी गयी। सहाय मंत्रिपरिषद में ऊंची जातियों का बोलबाला रहा।

 

केबी सहाय के खिलाफ विद्रोह

केबी सहाय जोड़तोड़ से मुख्यमंत्री तो बन गये, लेकिन पार्टी की गुटाबजी खत्म नहीं कर सके। 1967 के चुनाव में यह गुटबाजी ही कांग्रेस को ले डूबी। जनवरी 1967 में यानी चुनाव से कुछ पहले, केबी सहाय के दबदबे से नाराज महामाया प्रसाद सिन्हा और राजा रामगढ़, कामख्या नारायण सिंह ने कांग्रेस से विद्रोह कर जनक्रांति दल के नाम से नयी पार्टी बना ली। चुनाव में इस दल ने बड़ी जीत हासिल की, जो कांग्रेस की हार की एक बड़ी वजह बनी। राजा रामगढ़ के विरोध के कारण केबी सहाय हजारीबाग सीट से 1967 का चुनाव हार गये थे। वे पटना पश्चिम सीट से भी खड़ा हुए थे जहां महामाया प्रसाद सिन्हा ने उन्हें हराया था। कांग्रेस के नेता अपने ही दल के विरोधी गुट को हराने के लिए विरोधी दलों की मदद करन लगे। यहां तक आरोप लगा कि पार्टी इलेक्शन फंड का इस्तेमाल कांग्रेस के ही उम्मीदवारों को हराने के लिए किया गया। गुटबाजी का स्तर घृणा और द्वेष में बदल गया था। गांधी और नेहरू की पार्टी खुद अपने सर्वनाश पर तुल गयी थी।

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लेखक अशोक कुमार शर्मा