रामचरित मानस की 1975 में जलाई थी होली, प्रदेश सरकार में रहे थे वित्त मंत्री, रामस्वरूप वर्मा को जानिए

डॉ. रामस्वरूप वर्मा (22 अगस्त 1923 – 19 अगस्त 1998) उत्तर भारत के प्रभावशाली मानवतावादी विचारक, समाज सुधारक व राजनीतिज्ञ थे। उन्हें उत्तर भारत का “अम्बेडकर” और राजनीति का “कबीर” भी कहा जाता है।
प्रारंभिक जीवन
- जन्म: 22 अगस्त 1923, ग्राम गौरीकरण, कानपुर देहात (अब उत्तर प्रदेश)
- परिवार: कुर्मी जाति के किसान परिवार से, पिता वंशगोपाल, मां सखिया
- शैक्षणिक योग्यता:
- इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी में एम॰ए. (1949), प्रथम स्थान प्राप्त
- आगरा विश्वविद्यालय से विधि स्नातक (LLB), प्रथम श्रेणी
- उन्होंने IAS का लिखित परीक्षा उत्तीर्ण किया, पर साक्षात्कार नहीं दिया क्योंकि वे प्रशासनिक जीवन अपेक्षित नहीं समझते
राजनीतिक जीवन व विचारधारा
- छात्र जीवन में डॉ. आंबेडकर के विचारों से प्रेरित हुए; बाद में डॉ. राममनोहर लोहिया व आचार्य नरेंद्र देव के संपर्क में आए
- 1957 में सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) से भोगनीपुर विधानसभा क्षेत्र से विधायक निर्वाचित
- 1967 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी,1969 में निर्दलीय,1980,1989 व 1991 में शोषित समाज दल से विधायक चुने गये। जनान्दोलनों में भाग लेते हुए वे कई बार जेल गये। वर्मा जी डा. राममनोहर लोहिया के विचारों से काफी प्रभावित रहे। यहीं कारण रहा कि वे राजनीति को समाजसेवा मानते रहे। अपने जुझारू तेवर के चलते राजनीति को उन्होंने नयी दिशा दी। वर्ष 1967-68में उत्तरप्रदेश में सभी गैर कांग्रेसी दलों ने मिलकर सरकार बनायी, जिसे संविद सरकार के नाम से जाना जाता रहा।
बिहार के ‘लेनिन’ कहे जाने वाले जगदेव प्रसाद ने वर्मा जी के विचारों और उनके संघर्षशील व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उनके साथ मिलकर शोषित समाज दल का गठन किया। जगदेव बाबू के राजनेतिक संघर्ष से आंतकित होकर उनके राजनैतिक प्रतिद्वन्दियों ने उनकी हत्या करा दी। बाद में वर्मा जी ने जगदेव प्रसाद के संघर्षों को आगे बढ़ाने का काम किया ।
वर्मा जी राजनीति को समाजसेवा मानते थे। उनकी सोंच थी कि राजनीति को अर्थोपार्जन का माध्यम नहीं बनाना चाहिए। उन्होंने विधानसभामें विधायकों के वेतन भत्ते में बढ़ोत्तरी के प्रस्ताव का जबरदस्त विरोध ही नहीं किया वरन प्रस्ताव के पास होने पर बढ़े भत्ते को स्वीकार भी नहीं किया और इसे लेने से इंकार कर दिया।
वर्मा जी राजनीति में किसी जाति विशेष के उत्थान के लिए नहीं वरन देश का विकास करने के उद्देश्य से आये। समाज व राजनीति में ब्राह्मणवादी व्यवस्था का उन्होंने पुरजोर विरोध किया। उनका मानना था कि दबी पिछड़ी और दलित जातियों के पराभव का कारण ब्राह्मणवाद है। अपने इसी चिंतन के चलते वे बुद्ध व अम्बेडकर के करीब आये। वे डा. लोहिया के राजनीतिक सहयोगी भी रहे। उन्होंने साम्यवाद से कुछ ग्रहण किया तो कुछ का त्याग भी किया। उनका मानना था कि ब्राह्मणवाद की मुक्ति के बिना पिछड़ा वर्ग अपना कल्याण नहीं कर सकता। उन्होंने ब्राह्मणवाद के असली चेहरे को कई ग्रंथों की रचनाकर बेनकाब भी किया।
वर्मा जी राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रबल समर्थक रहे। उनकी सोंच थी कि सभी सरकारी कार्यालयों में सभी कामकाज हिन्दी में होने चाहिए। वर्मा जी जब प्रदेश सरकार में वित्तमंत्री बने तो उन्होंने मंत्रालय में सभी अंग्रेजी टाइपराइटर्स हटवा दिये। उन्होंने अधिकारियों व कर्मचारियों को हिन्दी में ही कार्य करने का निर्देश दिया और स्वयं सभी कार्य हिन्दी में ही करते रहे।
रामचरित मानस की 1975 में जलाई थी होली
डेरापुर के रहने वाले वकील राजा सिंह यादव बताते हैं कि रामचरित मानस पर जब भी बहस होगी तो रामस्वरूप वर्मा का जिक्र हमेशा आएगा। दरअसल, वह अपने जमाने के चर्चित विधायक रहे हैं। वह कई बार भोगनीपुर फिर राजपुर विधानसभा क्षेत्र से विधायक चुने गए। परिसीमन के बाद अब राजपुर विधानसभा खत्म होकर सिकंदरा हो गई है। राजा सिंह बताते हैं कि विधायक रामस्वरूप वर्मा कहते थे कि रामचरित मानस की चौपाई (ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी) ने संपूर्ण नारी समाज के साथ समाज के एक बड़े तबके का अपमान किया है। इसके साथ ही कई अन्य चौपाई सामाज में भेदभाव का भाव पैदा कर रही हैं। वह धर्म के नाम पर पाखंड करने वालों के भी सख्त खिलाफ थे। एक जून 1975 को विधायक रामस्वरूप वर्मा ने अपने विधानसभा क्षेत्र के दयानतपुर कांधी गांव के एक बाघ में रामचरित मानस की करीब पांच सौ प्रतियां एकत्र की, इसके बाद उनकी होली जला दी। ये घटना पूरे देश में चर्चा बन गई। विधायक और उनके सहयोगी रहे राधेश्याम कटियार, विश्राम स्वरूप सेंगर, सीताराम कटियार, रामआसरे समेत 129 लोगों पर धार्मिक ग्रंथ जलाने की एफआईआर हुई। वकील राजा सिंह बताते हैं कि मामला कोर्ट में चार साल तक चला, लेकिन आरोप तय नहीं हो सके। इससे मुकदमा खत्म हो गया।
लाभ का बजट पेश कर आए थे चर्चा में
रामस्वरूव वर्मा समाजवादी नेता थे। 22 अगस्त 1923 को उनका जन्म राजपुर क्षेत्र के गौरीकरन गांव में हुआ था। 18 अगस्त 1998 को उनकी मौत हो गई। वह लगातार पचास साल तक राजनीति में सक्रिय रहे। उन्होंने ही अर्जक संघ की स्थापना की थी। वह कहते थे कि समाज में समानता लाने के लिए अर्जक संघ काम करेगा। नारी, पिछड़े, शोषित और उपेक्षित समाज को समानता का भाव दिलाने के लिए अर्जक संघ संघर्ष जारी रखेगा। 1967 में उत्तर प्रदेश सरकार में वित्तमंत्री रहे। तब उन्होंने 20 करोड़ लाभ का बजट पेश किया था। वर्मा जी भले डिग्रीधारी अर्थशास्त्री नहीं थे पर किसान के बेटे का गौरव उन्हें प्राप्त था। बावजूद उन्होंने कृषि, सिंचाई, शिक्षा, चिकित्सा, सार्वजनिक निर्माण जैसे तमाम महत्वपूर्ण विभागों को गत वर्षों से डेढ़ गुना अधिक बजट आवंटित किया। कर्मचारियों की महंगाई भत्ते में वृद्धि करते हुए लाभ का बजट पेश किया।
कहा था कि किसान से अच्छा कोई अर्थशास्त्री नहीं
अर्थशस्त्री कहते हैं कि एक बार सरकार घाटे में जाने के बाद उसे फायदे में नहीं लाया जा सकता है। अधिक प्रयास के बाद केवल राजकोष का घाटा कम किया जा सकता है, लेकिन रामस्वरूप वर्मा ने वित्तमंत्री रहते हुए इस मिथक को भी तोड़ दिया था। उन्होंने 20 करोड़ के फायदे का बजट पेश कर दुनिया के आर्थिक जगत को चकित कर दिया था। विश्व की मीडिया ने उनका साक्षात्कार किया तो उन्होंने सिर्फ एक ही बात कही कि किसान से अच्छा अर्थशास्त्री कोई और नहीं हो सकता है। हानि की स्थिति में लोग अपना व्यवसाय बदल लेते हैं, लेकिन किसान खेती करना नहीं छोड़ता है। वह हर स्थिति से निपटने के लिए अर्थनीति निर्धारित करता रहता है।
अर्जक संघ की स्थापना
- 1 जून 1968 को उन्होंने अर्जक संघ की स्थापना की, जिसका उद्देश्य था राजनीतिक-सांस्कृतिक क्रांति और ब्राह्मणवाद का खंडन
- “अर्जक” का अर्थ श्रम करने वाले से है—यह संगठन श्रमशील समाज को सम्मान हेतु समर्पित था
सामाजिक-मानवतावादी अभियान
- ब्राह्मणवाद, वर्णव्यवस्था, अंधविश्वास और कर्मकांड का सख्त विरोध किया – उन्होंने ब्राह्मणवादी विवाह व त्यौहारों का विकल्प सामाजिक मानवतावादी रूप में पेश किया
- “रामायण और मनुस्मृति” का दहन अभियान चलाया (14–30 अप्रैल 1978), चेतना दिवस मनाया, और हिन्दुत्व के बाहरी प्रतीकों पर सवाल उठाए
समाज व राजनीति में ब्राह्मणवादी व्यवस्था का उन्होंने पुरजोर विरोध किया। उनका मानना था कि दबी पिछड़ी और दलित जातियों के पराभव का कारण ब्राह्मणवाद है। अपने इसी चिंतन के चलते वे बुद्ध व अम्बेडकर के करीब आये। वे डा. लोहिया के राजनीतिक सहयोगी भी रहे। उन्होंने साम्यवाद से कुछ ग्रहण किया तो कुछ का त्याग भी किया। उनका मानना था कि ब्राह्मणवाद की मुक्ति के बिना पिछड़ा वर्ग अपना कल्याण नहीं कर सकता। उन्होंने ब्राह्मणवाद के असली चेहरे को कई ग्रंथों की रचनाकर बेनकाब भी किया।
वर्मा जी को राजनीति में स्वार्थगत समझौते, ओहदों से सख्त नफरत थी। उनकी सोच एक ऐसे समाज के निर्माण की थी जिसमें हर कोई पूरी मानवीय गरिमा के साथ जीवन जी सके। वे सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक व सांस्कृतिक बराबरी के प्रबल समर्थक थे और इसके लिए वे चतुर्दिक क्रान्ति की लड़ाई एक साथ लड़े जाने पर जोर देते थे।
वर्मा जी ने वर्ष 1969 में अर्जक संघ का गठन किया था। अर्जक संघ अपने समय का सामाजिक क्रान्ति का ऐसा मंच था जिसने अंध विश्वास पर न सिर्फ हमला किया बल्कि उत्तर भारत में महाराष्ट्र और दक्षिण भारत की तरह सामाजिक न्याय का बिगुल फूंका। उन्हें उत्तर भारत का अम्बेडकर भी कहा गया। मंगलदेव विशारद और महाराज सिंह भारती जैसे तमाम समाजवादी वर्मा जी के साथ इस सामाजिक न्याय आंदोलन में जुड़े। अर्जक संघ ने पत्रिका का प्रकाशन भी किया। इस पत्रिका में प्रकाशित लेखों ने सामाजिक न्याय आंदोलन को गति प्रदान की।
कुछ प्रमुख रचनाएँ:
क्रान्ति और कैसे, ब्राह्मणवाद की शव-परीक्षा, अछूत समस्या और समाधान, ब्राह्मण महिमा क्यों और कैसे, मनुस्मृति राष्ट्र का कलंक, निरादर कैसे मिटे, अम्बेडकर साहित्य की जब्ती और कहानी, भण्डाफोड़, मानववादी प्रश्नोत्तरी जैसी महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखी जो अर्जक प्रकाशन से प्रकाशित हुई। इनमें उन्होंने वर्णवाद-विरोधी, मानवतावाद और बहुजन अधिकारों की बहस रखी
राजनीतिक सिद्धांत और आंदोलन
- 1969 में संसोपा छोड़कर शोषित समाज दल का गठन किया; नारा दिया:
“देश का शासन नब्बे पर नहीं चलेगा… सौ में नब्बे शोषित हैं… शोषितों का राज, शोषितों के लिए…” - मानवतावादी चेतना और आंदोलन को उन्होंने चार क्षेत्रों—सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक—में क्रांति का माध्यम मान
वर्मा जी का संपूर्ण जीवन देश और समाज को समर्पित था। उन्होंने “जिसमें समता की चाह नहीं/वह बढि़या इंसान नहीं, समता बिना समाज नहीं / बिन समाज जनराज नहीं’ जैसे कालजयी नारे गढ़े। उनका मानना था कि जनता अपने नेता को अपना आदर्श मानती है इसलिए सादगी, ईमानदारी, सिद्धान्तवादिता के साथ-साथ कर्तब्यनिष्ठा निहायत जरूरी है। उन्होंने विधायकों के वेतन बढ़ाये जाने का विधानसभा में हमेशा विरोध किया और स्वयं उसे कभी स्वीकार नहीं किया।
मृत्यु
- निधन: 19 अगस्त 1998, लखनऊ, उत्तर प्रदेश में
- उनका जन्मदिवस (22 अगस्त) और पुण्यतिथि (19 अगस्त) बहुजन समाज में बड़े पैमाने पर मनाये जाते हैं उनके नाम पर हेल्थ व सामाजिक न्याय संगठनों द्वारा सप्ताह, दिवस और आयोजन आयोजित किए जाते हैं
- गाँव के लोग सोशल एंड एजुकेशनल ट्रस्ट ने उनकी स्मृति में ‘राम स्वरूप वर्मा स्मृति गाँव के लोग सम्मान’ स्थापना की और पहला सम्मान देश के जाने-माने विचारक, लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता प्रोफेसर राम पुनियानी को दिया गया।
निष्कर्ष
डॉ. रामस्वरूप वर्मा एक ऐसे चिंतक – नेता – समाज सुधारक थे, जिन्होंने केवल राजनीति नहीं, बल्कि विचार और संस्कृति में बदलाव लाने की राह चुनी। उनका संघर्ष ब्राह्मणवादी व्यवस्था को पूर्णतया नकारने की, वर्ण व्यवस्था और अंधविश्वास से ऊपर उठकर मानवतावाद की स्थापना की दिशा में था।
उनकी जीवनकथा हमें यह सिखाती है कि आत्मनिर्भरता के सिद्धांत, साझा चेतना और सामाजिक न्याय की लड़ाई बिना सत्ता के भी सशक्त रूप में चली जा सकती है।